मर चुके थे। उनके छोटे भाई हज़रत हुसैन खिलाफ़त के उम्मेदवार थे, किन्तु मुआविया ने यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी बनाकर हुसैन को निराश कर दिया।
खलीफ़ा हो जाने के बाद यजीद को सबसे अधिक भय हुसैन का था, क्योंकि वह हज़रत अली के बेटे और हजरत मुहम्मद के नवासे (दौहित्र) थे । उनको माता का नाम फातिमा जोहरा था, जो मुस्लिम विदुषियों में सबसे श्रेष्ठ थों । हुसैन बड़े विद्वान् , सच्चरित्र, शान्त-प्रकृति, नम्र, सहिष्णु, ज्ञानी, उदार और धार्मिक पुरुष थे। वह वीर थे, ऐसे वीर कि अरब में कोई उनकी समता का नथा। किन्तु वह राजनीतिक छल-प्रपंच और कुत्सित व्यवहारों से अपरिचित थे। यजीद इन सब बातों में निपुण था । उसने अपने पिता अमीर मुआबिया से कूटनीति की शिक्षा पायी थी। उसके गोत्र (कबीले) के सब लोग कूट-नीति के पंडित थे । धर्म को वे केवल स्वार्थ का एक साधन समझते थे। भोग-विलास और ऐश्वर्य का उनको चसका पढ़ चुका था। ऐसे भोगलिप्सु प्राणियों के सामने सत्यव्रती हुसैन की भला कब चल सकती थी, और चली भी नहीं।
यजीद ने मदीने के सूबेदार को लिखा कि तुम हुसैन से मेरे नाम पर बैयत, अर्थात् उनसे मेरे खलीफा होने की शपथ लो। मतलब यह कि वह गुप्त रीति से उन्हें क़त्ल करने का षड्यंत्र रचने लगा। हुसैन ने बैयत लेने से इनकार किया। यजीद ने समझ लिया कि हुसैन बगावत करना चाहते हैं, अतएव वह उनसे लड़ने के लिए शैक्ति-संचय करने लगा । कूफा-प्रान्त के लोगों को हुसैन से प्रेम था। वे उन्हीं को अपना खलीफा बनाने के पक्ष में थे । यजीद को जब यह बत मालूम हुई, तो उसने कूफा के नेताओं को धमकाना और नाना प्रकार के कष्ट देना आरम्भ किया । कूफ़ा-निवासियों ने हुसैन के पास, जो उस समय मदीने से मक्के चले गये थे, सँदेसा भेजा कि आप आकर हमें इस संकट से मुक्त कीजिए। हुसैन ने इस सँदेसे का कुछ उत्तर न दिया, क्योंकि वह राज्य के लिए खून बहाना नहीं चाहते