मुआ॰---अगर हुकूमत करने के लिए दीन और हक़ का खून करना ज़रूरी है, तो मैं गदागरी करने को उससे बेहतर समझता हूँ। मुल्कदारी की मंशा इन्साफ़ और सच्चाई की हिफ़ाज़त करना है, उसका खून करना नहीं।
यज़ीद---आप लोग सुनते हैं इसकी बातें। यह मुझे मुल्कदारी का सबक़ सिखा रहा है। इसके सिर से अभी सौदा नहीं उतरा। इसे फिर वहीं ले जाओ। ऐसे आदमी को आज़ाद रखना ख़तरनाक है, चाहे वह तख़्त का वारिस ही क्यों न हो। बाज़ हालतें ऐसी होती है, जब इन्सान को अपने ही से बचाना जरूरी होता है। दीवाने को न रोको, तो वह अपना गोश्त काट खाता है। ( ग़ुलाम मुबाबिया को ले जाते हैं ) ज़ियाद, अब तुम अपनी दास्तान कहो। जब तक तुम मुझे इसका यक़ीन न दिला दोगे कि तुम कूफ़ा से अपनी जान के खौफ़ से नहीं, मेरे फ़ायदे के ख़याल से आये हो, मैं तुम्हें मुआफ़ न करूँगा। ऐसे नाज़ुक मौके पर जब शहर में बग़ावत का हंगामा गर्म हो, सल्तनत के हरएक मुलाज़िम का---चाहे वह सूबे का अामिल हो या शाही महल का दरबान---यही फ़र्ज़ है कि वह अपनी जगह पर आखिर कब तक खड़ा रहे, चाहे उसका जिस्म तीरों से छलनी क्यों न हो जाय।
ज़ियाद---या खलीफ़ा, मैं अपने फ़र्ज़ से वाक़िफ़ हूँ, पर मैं सिर्फ़ यह अर्ज़ करने के लिए हाज़िर हुअा हूँ कि इस वक़्त रियाया पर सख्ती करने से हालत और भी नाज़ुक हो जायगी। जब सल्तनत को किसी दूसरे मुद्दई का खौफ हो, तो बादशाह को रियाया के साथ नरमी का , बर्ताव करके उसे अपना दोस्त बना लेना मुनासिब है। बिगड़ी हुई रियाया तिनके की तरह है, जो एक चिनगारी से जल उठती है। मेरी अर्ज़ है कि हमें इस वक्त रियाया का दिल अपने हाथ में कर लेना चाहिए, उसकी गरदने एहसानों से दबा देनी चाहिए, ताकि वह सिर न उठा सके।
यज़ीद---मेरी फ़ौज बागियों का सिर कुचलने के लिए काफ़ी है।
रूमी---नाजुक मौके पर अगर कोई चीज़ सल्तनत को बचा सकती है, तो वह सख़्ती है। शायद और किसी हालत में सख्ती की इतनी ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती।