जैनब--–भैया, ऐसा भी हो सकता है कि आप वहाँ जायँ, और हम यहाँ रहें! खुदा जाने, कैसी पड़े, कैसी न पड़े।
सकीना---अब्बाजान दिल्लगी करते हैं, और आप लोग सच समझ गयीं।
कुलसूम---और कोई चले, चाहे न चले, मैं तो ज़रूर ही जाऊँगी। मेरे दिल से लगी हुई है कि एक बार यज़ीद को खूब आड़े हाथों लेती।
सकीना---मै अपनी फ़तह का कसीदा लिखने के लिए बेताब हूँ।
शहर॰---आप समझते हैं कि हमारे साथ रहने से आपको तरद्दुद होगा, पर मैं पूछती हूँ, आपको वहाँ फँसाकर दुश्मनों ने इधर हमला कर दिया, तो हमारी हिफ़ाजत की फ़िक्र आपको चैन लेने देगी?
जैनब---असग़र हुड़क-हुड़ककर जान दे देगा।
सकीना---हम अपने ऊपर इस बदनामी का दाग़ नहीं लगा सकती कि रसूल के बेटों ने तो इस्लाम की हिमायत में जान दी, और बेटियाँ हरम में बैठी रहीं।
हुसैन--–( स्वगत ) शहरबानू ने मार्के की बात कही, अगर दुश्मनों ने हरम पर हमला कर दिया, तो हम वहाँ बैठे-बैठे क्या करेंगे। इन्हें यहाँ छोड़ देना अपने क़िले की दीवार में शिग़ाफ़ कर देने से कम ख़तरनाक नहीं। ( प्रकट ) नहीं, मैं तुम लोगों पर ज़ब्र नहीं करता, अगर चलना चाहती हो, शौक़ से चलो।
[ यज़ीद का दरबार। मुआबिया बेड़ियाँ पहने हुए बैठा हुआ है। चार ग़ुलाम नंगी तलवारें लिये उनके चारों तरफ़ खड़े हैं। यज़ीद के तख़्त के क़रीब सरजून रूमी बैठा हुआ है। ]
मुआ॰---( दिल में ) नबी की औलाद पर यह ज़ुल्म? मुझी से तो इसका बदला लिया जायगा। बाप का क़र्ज़ बेटे ही को तो अदा करना पड़ता है! मगर मेरे खून से इस ज़ुल्म का दाग़ न मिटेगा। हर्गिज़ नहीं, इस