दिया है, पर खुद भी बहुत जल्द जाना चाहता हूँ।
जैनब---आपने एकाएक क्यों अपनी राय बदल दी! कम-से-कम मुस्लिम के खत के आने का तो इन्तज़ार कीजिए। मैं तो आपको हर्गिज़ न जाने दूँगी। अापका वह ख़्वाब याद है, जो आपने रसूल की क़ब्र पर देखा था?
हुसैन---हाँ जैनब, खूब याद है, और इसी वजह से मैं जाने की जल्दी कर रहा हूँ। उस ख़्वाब ने मेरी तक़दीर को मेरे सामने खोलकर रख दिया। तकदीर से बचने की भी कोई तदबीर है? खुदा का हुक्म भी टल सकता है? ख़िलाफ़त की तमन्ना को दिल से मिटा सकता हूँ, पर ग़ैरत को तो नहीं मिटा सकता, बेकसों की इमदाद से तो मुँह नहीं मोड़ सकता।
शहर॰---आप जो कुछ करते हैं, उसमें खुदा और तक़दीर को क्यों खींच लाते हैं। जब आपको मालूम है कि कूफ़ा में लोग आपके साथ दग़ा करेंगे, तो वहाँ जाइए ही क्यों। तक़दीर आपको खींच तो न ले जायगी? बेकसों की इमदाद ज़रूर अापका और आप ही का नहीं, हरएक इन्सान का फ़र्ज़ है, लेकिन आपके कुनबे की भी तो कोई ख़बर लेनेवाला हो? इन्सान पर दुनिया से पहले खानदान का हक़ होता है।
हुसैन---ज़रा इस खत को पढ़ लो, और तब कहो कि मैंने जो फ़ैसला किया है, वह मुनासिब है या नहीं। ( शहरबानू के हाथ में ख़त देकर ) देखा! इससे क्या साबित होता है? लेकिन जितने आदमियों ने इस पर दस्तखत किये हैं, उसके आधे भी मेरे साथ हो जायँगे, तो मैं यज़ीद का काफ़िया तंग कर दूँगा। इस्लाम की खिलाफ़त इतना अाला रुतबा है कि उसकी कोशिश में जान दे देना भी जिल्लत नहीं। जब मेरे हाथों में एक स्याहकार वेदीन आदमी को सज़ा देने का मौका आया है, तो उससे फ़ायदा न उठाना परले सिरे की पस्तहिम्मती है। घर में आग लगते देखकर उसमें कूद पड़ना नादानी है, लेकिन पानी मिल रहा हो, तो उससे आग को न बुझाना उससे भी बड़ी नादानी है।
सकीना---मगर अब्बाजान, अब तो मुहर्रम का महीना आ रहा है। 'फूफीजान की बहुत दिनों से आरजू थी कि इस महीने में यहाँ रहतीं।
हुसैन---तुम लोगों को ले जाने का मेरा इरादा नहीं है।