अब्बास-बेटा, तेरी उम्र दराज़ हो। तूने ख़ूब फ़ैसला किया। खुदा तुझे बुरी नज़र से बचाये।
हुसैन---अच्छी बात है, मुस्लिम, तुम सवेरे रवाना हो जाओ। अपने साथ पाँच ग़ुलाम लेते जाओ। रास्ते शायद इनकी ज़रूरत पड़े। मैं कूफ़ावालों के नाम यह खत लिख देता हूँ, उन्हें दिखा देना। इंशा अल्लाह, हम तुमसे जल्दी ही मिलेंगे। वहाँ बड़ी एहतियात से काम लेना, अपने को छिपाये रखना, और किसी ऐसे आदमी के घर उतरना, जो सबसे ज्यादा एतबार के लायक़ हो। मेरे पास एक खत रोज़ाना भेजना।
मु॰---खुदा से दुआ कीजिए कि वह मेरी हिदायत करे। मैं बड़ी भारी ज़िम्मेदारी लेकर जा रहा हूँ। सुबह की नमाज़ पढ़कर मैं रवाना हो जाऊँगा। तब तक तारिक की साँड़नी भी आराम कर लेगी।
[ हुसैन ख़त लिखकर मुस्लिम को देते हैं। मुस्लिम दरवाजे की तरफ़ चलते हैं। ]
हुसैन---( मुस्लिम के साथ दरवाज़े तक आकर ) रात तो अँधेरी है।
मु॰---उम्मीद की रोशनी तो दिल में है।
हुसैन--–( मुस्लिम से बग़लगीर होकर) अच्छा भैया, जाओ। मेरा दिल तुम्हारे साथ रहेगा। जो कुछ होनेवाला है, जानता हूँ। इसकी ख़बर मिल चुकी है। तक़दीर से कोई चारा नहीं, नहीं जानता, यह तक़दीर क्या है! अगर खुदा का हुक्म है, तो छुपकर, सूरत बदलकर, दगाबाज़ों की तरह क्यों आती है। खुदा क्या साफ़ और खुले हुए अल्फ़ाज़ में अपना हुक्म नहीं भेजता। अपने बेकस बच्चों का शिकार टट्टी की आड़ से क्यों करता है? जाओ, कहता हूँ, पर जी चाहता है, न जाने दूँ। काश, तुम कह देते कि मैं न जाऊँगा। मगर तक़दीर ने तुम्हारी ज़बान बन्द कर रखी है। अच्छा, रुखसत। उम्मीद है कि अल्लाह हम दोनों को एक साथ शहादत का दर्ज़ा देगा।
[ मुस्लिम बाहर चला जाता है। हुसैन आँखें पोछते हुए हरम में दाखिल होते हैं। ]
जैनब–--भैया, आज फिर कोई क़ासिद अाया था क्या?
हुसैन---हाँ जैनब, आया था। यज़ीद कूफ़ावालों पर बड़ा ज़ुल्म कर रहा है। मेरा वहाँ जाना लाजिमी है। अभी तो, मैंने मुस्लिम को वहाँ भेज