ने दिल निकालकर रख दिया। यह कितना ग़ज़ब का जुमला है कि अगरअाप न आयेंगे, तो हम अाक़बत में आपसे इन्साफ़ का दावा करेंगे। आह! उन्होंने नाना का वास्ता दिया है। मैं नाना के नाम पर अपनी जान को यों फ़िदा कर सकता हूँ, जैसे कोई हरीस अपना ईमान फ़िदा कर देता है। इतना जुल्म! इतनी सख़्ती! दिन दहाड़े लूट!! दिन दहाड़े औरतों की बेआबरूई! ज़रा-ज़रा-सी बातों पर लोगों का क़त्ल किया जाना! अब्बास, अब मुझे सब्र की ताब नहीं है। मैं अपने बैयत के लिए हर्गिज़ न जाता, पर मुसीबतज़दों की हिमायत के लिए न जाऊँ, यह मेरी गै़रत गवारा नहीं करती।
मु॰---या बिरादर, आप इसका कुछ ग़म न करें, मैं इसी क़ासिद के साथ वहाँ जाऊँगा, और वहाँ की कैफ़ियत की इत्रिला दूँगा। मेरा खत देखकर आप मुनासिब फ़ैसला कीजिएगा।
हुसैन---तब तक यज़ीद उन ग़रीबों पर खुदा जाने क्या-क्या सितम ढाये। उसका अज़ाब मेरी गर्दन पर होगा। सोचो, जब क़यामत के दिन वे लोग फ़रियादी होंगे, तो मैं नाना को क्या मुँह दिखाऊँगा। वह जब मुझसे पूछेगे कि तुझे जान इतनी प्यारी थी कि तूने मेरे बंदों पर ज़ुल्म होते देखे, और खामोश बैठा रहा, उस वक्त़ मैं उन्हें क्या जवाब दूँगा। मुस्लिम, मेरा जी चाहता है कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ।
मु॰---मुझे तो इसका यकीन है कि सुलेमान-जैसा आदमी कभी दग़ा नहीं कर सकता।
जुबेर---हर्गिज़ नहीं।
मु॰-पर मैं यही मुनासिब समझता हूँ कि पहले वहाँ जाकर अपना इतमीनान कर लूँ।
हुसैन---बच्चों को ग़ैब का इल्म होता है। इसका फ़ैसला अली असग़र पर छोड़ दिया जाय। क्यों बेटा, मैं भी मुस्लिम के साथ जाऊँ, या उनके ख़त का इन्तज़ार करूँ?
अली अस॰---नहीं अब्बाजान, अभी मुस्लिम चचा ही को जाने दीजिए। आप चलेंगे, तो कई दिन तैयारियों में लग जायेंगे। ऐसा न हो, इतने दिनों में वे बेचारे निराश हो जायँ।