मु॰—और सभी बड़े-बड़े क़बीलों के सरदार हैं। सुलेमान, हारिस, हज्जाज़, शिमर, मुख़्तार, हानी, ये मामली आदमी नहीं हैं।
जुबेर—मैं तो अर्ज़ कर चुका कि मुसल्लम इराक़ आपकी बैयत क़बूल करने के लिए बेक़रार है।
हुसैन—मुझे तो अभी तक उनकी बातों पर एतबार नहीं होता। ख़ुदा जाने, क्यों मेरे दिल में उनकी तरफ़ से दग़ा का शुबहा घुसा हुआ है। मुझे हबीब की बातें नहीं भूलतीं, जो उसने चलते-चलते कही थीं।
मु॰—गुस्ताख़ी तो है, पर आपका उन पर शक करना बेजा है। आख़िर आप उनकी वफ़ादारी का और क्या सबूत चाहते हैं? वे क़समें खाते हैं, वादे करते हैं, साफ़ लिखते हैं कि आपकी मदद के लिए बीस हज़ार सूरमा तैयार बैठे हुए हैं। अब और क्या चाहिए?
जुबेर—कम-से-कम मैं तो ऐसे सबूत पाकर पल की भी देर न करता।
अब्बास—मुझे तो इन कूफ़ियों पर उस वक़्त भी एतबार न आयेगा, अगर उनके बीसों हज़ार आदमी यहाँ आकर आपकी बैयत की क़सम खा लें। अगर वह क़ुरान शरीफ़ हाथ में लेकर क़समें खायें, तो भी मैं उनसे दूर भागूँ।
[तारिक आता है।]
तारिक—अस्सलाम अलेक या हुसैन।
हुसैन—ख़ुदा तुम पर रहमत करे। कहाँ से आ रहे हो?
तारिक—कूफ़ा के मज़लूमों ने अपनी फ़रियाद सुनाने के लिए आपकी ख़िदमत में भेजा है। आफ़ताब डूबते चला था, और आफ़ताब डूबते आया हूँ, और आफ़ताब निकलने के पहले यहाँ से जाना है।
मु॰—हवा पर आये हो या तख़्तए-सुलेमान पर? क़सम है पाक रसूल की कि मैं उस घोड़े के लिए पाँच हज़ार दीनार पेश कर सकता हूँ।
तारिक—हुज़ूर, घोड़ी नहीं, साँड़नी है, जो सफ़र में खाना और थकना नहीं जानती।
[हुसैन के हाथ में ख़त देता है।]
हुसैन—(ख़त पढ़कर) आह, कितना दर्द भरा हुआ ख़त है। ज़ालिमों