हज़रत मुहम्मद की मृत्यु के बाद कुछ ऐसी परिस्थिति हुई कि खिलाफत का पद उनके चचेरे भाई और दामाद हज़रत अली को न मिलकर उमर फारूक को मिला । हज़रत मुहम्मद ने स्वयं ही व्यवस्था की थी कि खलीफा सर्व-सम्मति से चुना जाया करे, और सर्व-सम्मति से उमर फारूक चुने गये । उनके बाद अबूबकर चुने गये। अबूबकर के बाद यह पद उसमान को मिला। उसमान अपने कुटुम्बवालों के साथ पक्षपात करते थे, और उच्च राजकीय पद उन्हीं को दे रखे थे। उनकी इस अनीति से बिगड़कर कुछ लोगों ने उनकी हत्या कर डाली। उसमान के सम्बन्धियों को सन्देह हुआ कि यह हत्या हजरत अली की ही प्रेरणा से हुई है। श्रतएव उसमान के बाद अली खलीफ़ा तो हुए, किन्तु उसमान के एक आत्मीय सम्बन्धी ने, जिसका नाम मुआबिया था, और जो शाम-प्रान्त का सूबेदार था, अली के हाथों पर बैयत न की; अर्थात् अली को खलीफा नहीं स्वीकार किया। अली ने सुधाबिया को दंड देने के लिए सेना नियुक्त की। लड़ाइयाँ हुई, किन्तु पाँच वर्ष की लगातार लड़ाई के बाद अन्त को मुआबिया की ही विजय हुई। हजरत अली अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान कूट-नीतिज्ञ न थे। वह अभी मुआबिया को दबाने के लिए एक नयी सेना संगठित करने की चिन्ता में ही थे कि एक हत्यारे ने उनका वध कर डाला।
मुआबिया ने घोषणा की थी कि अपने बाद मैं अपने पुत्र को खलीफा नामजद न करूँगा, वरन हजरत अली के ज्येष्ठ पुत्र हसन को खलीफा बनाऊँगा। किन्तु जब उसका अन्त-काल निकट आया,तो उसने अपने पुत्र यजीद को खलीफा बना दिया। हसन इसके पहले ही