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कर्बला

दुरुस्त है, लेकिन तुम हज़रत हुसैन के दोस्त हो, तुमसे कहने में कोई खौफ़ नहीं कि मक्कावाले भी इस मामले में कूफ़ावालों ही के भाई-बंद हैं। इनके क़ौल और फ़ेल का भी कोई एतबार नहीं। कूफ़ की आबादी ज़्यादा है, वे अगर दिल से किसी बात पर आ जायँ, तो यज़ीद के दाँत खट्टे कर सकते हैं। मक्का की थोड़ी-सी आबादी अगर वफ़ादार भी रहे, तो उससे भलाई की कोई उम्मीद नहीं हो सकती। शाम की दो हज़ार फ़ौज इन्हें घेर लेने को काफ़ी है। भलाई या बुराई किसी ख़ास मुल्क या क़ौम का हिस्सा नहीं होती। वही सिपाह जो एक बार मैदान में दिलेरी के जौहर दिखाती है, दूसरी बार दुश्मन को देखते ही भाग खड़ी होती है। इसमें सिपाह की खता नहीं। उसके फ़ेल की ज़िम्मेदारी उसके सरदार पर है। वह अगर दिलेर है, तो सिपाह में दिलेरी की रूह फूँक सकता है; कम-हिम्मत है, तो सिपाह की हिम्मत को भी पस्त कर देगा। आप रसूल के बेटे हैं, आपको भी खुदा ने वही अक़्ल और कमाल अता किया है। यह क्योकर मुमकिन है कि आपकी साहबत का उन पर असर न पड़े। कूफ़ा तो क्या, आप हक़ को भी हक़ के रास्ते पर ला सकते हैं। मेरे खयाल में आपको किसी से बदगुमान होने की ज़रूरत नहीं।

अब्बास---जुबेर, सलाह कितनी ही माकूल हो, लेकिन उसमें ग़रज़ की बू आते ही उसकी मंशा फ़ौत हो जाती है।

हुसैन---अगर तुम्हारा इरादा यहाँ लोगों से बैयत लेने का हो, तो शौक़ से लो, मैं ज़रा भी दखल न दूँगा।

जुबेर---या हज़रत, मेरा खुदा गवाह है कि मैं आपके मुकाबले में अपने को खिलाफ़त के लायक नही समझता। मैं यज़ीद की बैयत न करूँगा, लेकिन खुदा मुझे नजात न दे,अगर मेरे दिल में आपका मुकाबला करने का ख़याल भी आया हो।

हबीब---या इमाम, अगर तकलीफ न हो, तो सहन में तशरीफ़ लाइए। अज़ान हो चुकी। लोग आपकी राह देख रहे हैं।

[ सब लोग नमाज पढ़ने जाते हैं। ]