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कर्बला

हरजसराय-हाँ,हक़ तो हुसैन ही का है। मुबाबिया से पहले इसी शर्त पर सन्धि हुई थी।

सिहदत्त-यज़ीद की शरारत है। मुझे मालूम है,वह अभिमानी, तामसी और विलास-भोगी मनुष्य। विषय-वासना में मग्न रहता है । हम ऐसे दुर्जन की खिलाफ़त कदापि स्वीकार नहीं कर सकते।

पुण्यराय-(सेवक से) कुछ मालूम हुआ हुसैन क्या कर रहे हैं ?

सेवक-दीनबन्धु,वह मदीना से भागकर मक्का चले गये हैं।

सिंह०-यह उनकी भूल है,तुरन्त मदीनावासियों को संगठित करके यजीद के नाज़िम का वध कर देना चाहिए था,इसके पश्चात् अपनी खिलाफत की घोषणा कर देनी थी। मदीना को छोड़कर उन्होंने अपनी निर्बलता स्वीकार कर ली।

रामसिंह-हुसैन धर्मनिष्ठ पुरुष हैं। अपने बंधुत्रों का रक्त नहीं बहाना चाहते।

ध्रुवदत्त-जीव-हिंसा महापाप है। धर्मात्मा पुरुष कितने ही संकट में पड़े,किन्तु अहिंसा-व्रत को नहीं त्याग सकता

भीरुदत्त-न्याय-रक्षा के लिए हिंसा करना पाप नहीं। जीव-हिंसा न्याय- हिंसा से अच्छी है।

साहस०-अगर वास्तव में यजीद ने खिलाफत का अपहरण कर लिया है,तो हमें अपने व्रत के अनुसार न्याय-पक्ष ग्रहण करना पड़ेगा। यजीद शक्तिशाली है,इसमें सन्देह नहीं, पर हम न्याय-व्रत का उल्लंघन नहीं कर सकते। हमें उसके पास दूत भेजकर इसका निश्चय कर लेना चाहिए कि हमें किस पथ का अनुसरण करना उचित है।

सिंहदत्त -जब यह सिद्ध है कि उसने अन्याय किया, तो उसके पास दूत भेजकर विलम्ब क्यों किया जाय। हमें तुरन्त उससे संग्राम करना चाहिए। अन्याय को भी अपने पक्ष का समर्थन करने के लिए युक्तियों का अभाव नहीं होता।

हरजसराय-मैं पूछता हूँ,अभी समर की बात ही क्यों की जाय। राजनीति के तीनों सिद्धान्तों की परीक्षा कर लेने के पश्चात् ही शस्त्र ग्रहण