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कर्बला

मर०-वलीद,तुम्हारी बदौलत मुझे यह ज़िल्लत हुई।

वलीद-तुम नाशुक्र हो। मेरी बदौलत तुम्हारी जान बच गयी;वरना तुम्हारी लाश फर्श पर तड़पती हुई नज़र आती।

मर०-तुमने यज़ीद की खिलाफत यज़ीद से छीनकर हुसैन को दे दी। तुमने अबूसिफ़ियान की औलाद होकर उसके खानदान से दुश्मनी की। तुम खुदा की दरगाह में उस कत्ल और खून के ज़िम्मेदार होगे,जो आज की गफलत या नरमी का नतीजा होगा।

[मरवानांचला जाता है।]
पाँचवाँ दृश्य

[समय-आधी रात। हुसैन और अब्बास मस्जिद के सहन में बैठे हुए हैं।

अब्बास-बड़ी खैरियत हुई,वरना मलऊन ने दुश्मनों का काम ही तमाम कर दिया था।

हुसैन-तुम लोगों की जतन बड़े मौके पर काम आयी। मुझे गुमान न था कि यह सब मेरे साथ इतनी दग़ा करेंगे। मगर यह जो कुछ हुआ,आग चलकर इससे भी ज्यादा होगा। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि हमें अब चैन से बैठना नसीब न होगा। मेरा भी वही हाल होनेवाला है,जो भैया इमाम हसन का हुआ।

अब्बास-खुदा न करे,खुदा न करे!

हुसैन-अब मदीने में हम लोगों का रहना कांटे पर पाँव रखना है । भैया,शायद नबियों की औलाद शहीद होने ही के लिए पैदा होती है। शायद नबियों को भी होनहार की खबर नहीं होती;नहीं तो क्या नाना के मसनद पर वे लोग बैठते,जो इस्लाम के दुश्मन हैं,और जिन्होंने सिर्फ अपनी गरज पूरी करने के लिए इस्लाम का स्वांग भरा है। मैं रसूल ही से पूछता हूँ कि वह मुझे क्या हुक्म देते हैं? मदीने ही में रहूँ या कहीं और चला नाऊँ? (हज़रत मुहम्मद की का पर जाकर) ऐ खुदा,यह तेरे रसूल मुहम्मद