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घोड़ा बिजली की तरह कड़ककर जाता था, लोग काई की भाँति फट जाते थे। कोई सामने आने की हिम्मत न कर सकता था । इस भाँति सिपाहियों के दलों को चीरते-फाड़ते वह फ़रात के किनारे पहुँच गये, और पानी पीना चाहते थे कि किसी ने कपट भाव से कहा-"तुम यहाँ पानी पी रहे हो, उधर सेना स्त्रियों के खीमों में घुसी जा रही है।" इतना सुनते ही लपककर इधर आये, तो ज्ञात हुआ कि किसी ने छल किया है। फिर मैदान में पहुँचे, और शत्रु-दल का संहार करने लगे। यहाँ तक कि शिमर ने तीन सेनाओं को मिलाकर उन पर हमला करने की आज्ञा दी । इतना ही नहीं, बगल से और पीछे से भी उन पर तीरों की बौछार होने लगी। यहाँ तक कि जख्मों से चूर होकर वह जमीन पर गिर पड़े, और शिमर की आज्ञा से एक सैनिक ने उनका सिर काट लिया! कहते हैं, जैनब यह दृश्य देखने के लिए खीमे से बाहर निकल आयी थी। उसी समय उमर-बिन-साद से उनका सामना हो गया । तब वह बोलीं-"क्यों उमर, हुसैन इस बेकसी से मारे जायँ, और तुम देखते रहो!” उमर का दिल भर आया, आँखें सजल हो गयी, और कई बदें डाढ़ी पर गिर पड़ी।

हुसैन की शहादत के बाद शत्रुओं ने उनकी लाश की जो दुर्गति की, वह इतिहास की अत्यन्त लज्जाजनक घटना है। उससे यह भली भाँति प्रकट हो जाता है कि मानव-हृदय कितना नीचे गिर सकता है। गुरु गोविन्दसिंह के बच्चे की कथा भी यहाँ मात हो जाती है, क्योंकि ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी धर्म-संचालक के नवासों को अपने नाना के अनुयायियों के हाथों यह बुरा दिन देखना पड़ा हो ।