धार्मिक संग्राम था, और इतिहास साक्षी है कि धार्मिक संग्राम में पाशविक प्रवृत्तियाँ अत्यन्त प्रचंड रूप धारण कर लेती हैं। पर इस संग्राम में ऐसे प्रतिष्ठित प्राणी के साथ जितनी घोर दुष्टता और दुर्जनता दिखाई गयी, उसकी उपमा संसार के धार्मिक संग्रामों में भी मुश्किल से मिलेगी, हुसैन के जितने साथी शहीद हुए, प्रायः उन सभी की लाशों को पैरों-तले रौंदा गया, उनके सिर काटकर भालों पर उछाले और पैरों से ठुकराये गये । पर कोई भी अप- मान और बड़ी-से-बड़ी निर्दयता उनकी उस कीर्ति को नहीं मिटा सकती, जो इस्लाम के इतिहास का आज भी गौरव बढ़ा रही है । इस्लाम के साहित्य और इतिहास में उन्हें वह स्थान प्राप्त है, जो हिन्दू-साहित्य में अंगद, जामवंत, अर्जुन, भीम आदि को प्राप्त है। सूर्यास्त होते-होते सहायकों में कोई भी नहीं बचा।
अब निज कुटुम्ब के योद्धाओं की बारी आयी । इस वंश के पूर्वज हाशिम नाम के एक पुरुष थे। इसी लिए हज़रत मोहम्मद का वंश हाशिमी कहलाता है। इस संग्राम में पहला हाशिमी जो क्षेत्र में आया, वह अब्दुल्लाह था । यह उसी मुस्लिम नाम के वीर का बालक था, जो पहले शहीद हो चुका था। उसके बाद कुटुम्ब के और वीर निकले। जाफर इमाम हसन के तीन बेटे, अब्बास के कई भाई, हज़रत अली के कई बेटे और सब बारी-बारी से लड़कर शहीद हुए। हज़रत अब्बास से हुसैन ने कहा-"मैं बहुत प्यासा हूँ।"सन्ध्या हो गयी थी। अब्बास पानी लाने चले, पर रास्ते में घिर गये। वह असाधारण वीर पुरुष थे। हाशिमी लोगों में इतनी वीरता से कोई नहीं लड़ा । एक हाथ कट गया, तो दूसरे हाथ से लड़े। जब वह हाथ भी कट गया, तो जमीन पर गिर पड़े। उनके मरने का हुसैन को अत्यन्त शोक हुआ। बोले-"अब मेरी कमर टूट गयी।" अब्बास के बाद हुसैन के नौजवान बेटे अकबर मैदान में उतरे। हुसैन ने अपने हाथों उन्हें शस्त्रों से सुसज्जित किया । आह ! कितना हृदय-विदारक दृश्य है। बेटे ने खड़े होकर हुसैन से जाने की आज्ञा माँगी, पिता का वीर हृदय अधीर हो