देते ! जिस पानी को पशु और पक्षी तक पी सकते हैं, वह भी उन्ह मयस्सर नहीं !"
इस पर शत्रुओं ने उन पर तीरों की वर्षा कर दी, और हुर भी लड़ते हुए वीर-गति को प्राप्त हुए। उन्हीं के साथ उनका पुत्र भी शहीद हुआ।
आश्चर्य होता है और दुःख भी कि इतना सब कुछ हो जाने पर भी हुसैन को इन नर-पिशाचों से कुछ कल्याण की आशा बनी हुई थी। वह जब अवसर पाते थे, तभी अपनी निर्दोषिता प्रकट करते हुए उनसे आत्म-रक्षा की प्रार्थना करते थे। दुराशा में भी यह आशा इसलिए थी कि वह हजरत मोहम्मद के नवासे थे, और उन्हें आशा होती थी कि शायद अब भी मैं उनके नाम पर इस संकट से मुक्त हो जाऊँ। उनके इन सभी संभाषणों में आत्म-रक्षा की इतनी विशद चिन्ता व्याप्त है, जो दीन चाहे न हो, पर करुण अवश्य है, और एक आत्मदर्शी पुरुष के लिए, जो स्वर्ग में इससे कहीं उत्तम जीवन का स्वप्न देख रहा हो, जिसको अटल विश्वास हो कि स्वर्ग में हमारे लिए अकथनीय सुख उपस्थित है, शोभा नहीं देती ।। हुर के शहीद होने के पश्चात् हुसैन ने फिर शत्रु सेना के सम्मुख खड़े होकर कहा-
"मैं तुमसे निवेदन करता हूँ कि मेरी इन तीन बातों में से एक को मान लो-
“(१) मुझे यजीद के पास जाने दो कि उससे बहस करूँ । यदि -मुझे निश्चय हो जायगा कि वह सत्य पर है, तो मैं उसकी बैयत कर लूँगा।"
(इस पर किसी पाषाण-हृदय ने कहा-"तुम्हें यजीद के पास न जाने देंगे। तुम मधुरभाषी हो, अपनी बातों में उसे फंसा लोगे, और इस समय मुक्त होकर देश में विद्रोह फैला दोगे।")
(२) “जब यह नहीं मानते, तो छोड़ दें कि मैं अपने नाना के रौजे की मुजाविरी करूँ।"
(इस पर भी किसी ने उपर्युक्त शंका प्रकट की।)