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कर्बला

न पैदा हो कि मैं उनके साथ अपनी ग़रज़ निकालने के लिए ज़मानासाज़ी कर रही थी। आह! उन्हें क्योंकर अपना दिल खोलकर दिखा दूँ कि वह उनके लिए कितना बेकरार है। पर अपने लड़कों पर क़ाबू नहीं। जाओ, जैसे तुमने मेरे मुँह में कालिख लगायी है, मैं भी तुम्हें दूध न बख्शूँगी। ये इतने कमहिम्मत कैसे हो गये? जिनका नाना रण में तूफ़ान पैदा कर देता था, जिनके बाप की ललकार सुनकर दुश्मनों के कलेजे दहल जाते थे, वे ही लड़के इतने बोदे, पस्तहिम्मत हों। यह मेरी तक़दीर की ख़राबी है, और क्या! जब रण में जाना ही नहीं, तो वे हथियार से सजकर क्यों मुझे जलाते हैं। भैया को कौन मुँह दिखाऊँगी, उनके सामने आँखें कैसे उठाऊँगी!

[ दोनो लड़कों का प्रवेश। ]

औम---अम्माजान, आप हमारा फ़ैसला कर दीजिए। मैं पहले रण में जाता हूँ, पर यह मुझे जाने नहीं देता, कहता है, पहले मैं जाऊँगा। सुबह से यही बहस छिड़ी हुई है, किसी तरह छोड़ता ही नहीं। बताओ, बड़े भाई के होते हुए छोटा भाई शहीद हो, यह कहाँ का इन्साफ़ है?

मुहम्मद---तो अम्माजान, यह कहाँ का इन्साफ़ है कि बड़ा भाई तो मरने जाय, और छोटा भाई बैठे उसकी लाश पर मातम करे। अम्मा, आप चाहे खुश हों या नाराज़, यह तो मुझसे न होगा। शायद इनका यह ख्याल हो कि मैं जंग के क़ाबिल नहीं हूँ। छोटा हूँ, क्या जवाब दूँ, लेकिन खुदा चाहेगा, तो----

एक हमले में गर हम न उलट दें सफ़े-लश्कर,
फिर दूध न अपना हमें तुम बख़्शयो मादर!
शह के क़दमे-पाक पै सिर देके फिरेंगे,
या रण से सिरे शिम्रोउमर लेके फिरेंगे।

अम्माजान, आप न मेरी खातिर कीजिए न इनकी, इन्साफ़ से फ़रमाइए, पहले किसको जाने का हक है?

जैनब---अच्छा, तुम लोगों के रण में न जाने का यह मतलब था! मैं कुछ और समझ रही थी। प्यारो, तुम्हारी माँ ने तुम्हारी दिलेरी पर शक किया, इसे माफ करो। मालूम नहीं, मुझे क्या हो गया था कि मेरे दिल में