यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८१
कर्बला

[ साहसराय का प्रवेश। ]

साहस़राय---सती, तुम्हें नमस्कार करता हूँ।

नसीमा---साहब, आप ख़ूब आये। आपका शुक्रिया तहे-दिल से शुक्रिया! अापने ही मुझे आज इस दरजे पर पहुँचाया। अापके वतन में औरतें अपने शौहरों के बाद जिन्दा नहीं रहतीं। वे बड़ी खुशनसीब होती हैं।

साहस॰---सती, हम लोगों को आशीर्वाद दो।

नसीमा---( हँसकर ) यह दरजा! अल्लाह रे मैं, यह वहब की बदौलत, उसकी शहादत के तुफैल, खुदा, तुझसे मेरी दुअा है, मेरी क़ौम में कभी शहीदों की कमी न रहे, कभी वह दिन न आये कि हक़ को जाँबाजों की जरूरत हो, और उस पर सिर कटानेवाले न मिलें। इस्लाम, मेरा प्यारा इस्लाम शहीदों से सदा मालामाल रहे! ( अपने दामन से एक सलाई निकालकर वहब के खून में डुबाती है ) क्यों साहसराय, तुम्हारे यहाँ सती के जिस्म से भाग निकलती है, और वह उसमें जल जाती है। क्या बिला आग के जान नहीं निकलती?

साहस॰---नसीमा, तू देवी है। ऐसी देवियों के दर्शन दुर्लभ होते हैं। आकाश के देवता तुझ पर पुष्प-वर्षा कर रहे हैं।

[ नसीमा आँखों में सलाई फेर लेती है, और एक आह के साथ उसकी जान निकल जाती है। ]


तीसरा दृश्य

[ दोपहर का समय। हज़रत हुसैन अब्बास के साथ ख़ेमे के दरवाज़े पर खड़े मैदाने-जंग की तरफ़ ताक रहे हैं। ]

हुसैन---कैसे-कैसे जाँबाज़ दोस्त रुखसत हो गये, और होते जा रहे हैं। प्यास से कलेजे मुँह को आ रहे हैं, और ये ज़ालिम नमाज़ तक की मुहलत नहीं देते। आह! जहीर का-सा दीनदार उठ गया, मुस्लिम बिन ऊसजा