क़मर―या हज़रत, इसका ग़म नहीं। वह आप पर निसार हो गये, इससे बेहतर और कौन-सी मौत हो सकती थी। काश मैं भी उनके साथ चली जाती। मेरे जाँबाज़ ! सच्चे दिलावर, जा, और जन्नत में आराम कर। तू वह था, जिसने कभी सायल को नहीं फेरा, जिसकी नीयत कभी खराब और निगाह कभी बुरी नहीं हुई। जा, और जन्नत में आराम कर।
हुसैन―क़मर सब्र करो कि इसके सिवा कोई चारा नहीं है।
क़मर―मुझे उनके मरने का ग़म नहीं है। मैं खुश हूँ कि उन्होंने हक़ पर जान दी। इस वक्त अगर मेरे सौ बेटे होते, तो मैं इसी तरह उन्हें भी आपके क़दमों पर निसार कर देती। काश वहब इतना ज़नपरस्त न होता....
वहब―अस्सलामअलेक या हज़रत हुसैन।
क़मर―(वहब को गले लगाकर) ज़रा देर पहले ही क्यों न आ गये बेटा कि अपने बाप का आखिरी दीदार कर लेते। नसीमा कहाँ है?
वहब―यहीं खेमों के पीछे खड़ी है।
क़मर―मैं अभी तुम्हारा ही ज़िक्र कर रही थी। क्यों बेटा, अपने बाप का नाम रोशन न करोगे? मेरा तुम्हारे ऊपर बड़ा हक़ है। तुम मेरे जिगर का खून पीकर पले हो। मेरा दूध हलाल न करोगे? मेरी तमन्ना है कि हुसैन पर अपनी जान निसार करो, ताकि दुनिया में क़मर का नाम क़मर की तरह चमके, जिसका शौहर और बेटा, दोनों ही हक पर शहीद हुए।
वहब―अम्माजान, मेरी भी दिली तमन्ना यह थी और है। मैं अपने बाप के नाम को दाग़ नहीं लगाना चाहता, मगर नसीमा को क्या करूँ? उसकी मुसीबतों का खयाल हिम्मत को पस्त कर देता है। जाता हूँ, अगर उसने इजाज़त दे दी, तो मेरे लिए इससे बढ़कर खुशी नहीं हो सकती।
क़मर―बेटा, तुम उसकी आदत से वाक़िफ़ होकर फिर उसी से पूछने जाते हो। इसके मानी इसके सिवा और कुछ नहीं है कि तुम खुद मैदान में जाते हुए डरते हो।