ज़हीर---आपको कोई शिकार न मिलेगा।
हुसैन--–मेरे साथ यह ज़्यादती क्यों?
ज़हीर---इसलिए कि अाप भी शिकारियों की जेल में आ जायँगे, तो जन्नत की नियामतों में भी साझा बँटायेंगे। आपके लिए रसूले-पाक की क़ुर्बत कानी है। जन्नत की नियामतों में हम आपको शरीकध नहीं करना चाहते।
हुसैन--–मैं जरा साद के लश्कर से बातें करके आ जाऊँ, तो इसका फ़ैसला हो।
हबीब---उन गुमराहों की फ़रमाइश करना बेकार है। उनके दिल इतने सख़्त हो गये हैं कि उन पर कोई तक़रीर असर नहीं कर सकती।
हुसैन--–ताहम कोशिश करना मेरा फ़र्ज़ है।
[ परदा बदलता है। हुसैन अपनी साँडनी पर साद की फ़ौज के सामने खड़े हैं। ]
हुसैन---ऐ लोगो, कूफ़ा और शाम के दिलेर जवानो और सरदारो! मेरी बात सुनो, जल्दी न करो। मुसलमान अपने भाई की गर्दन पर तलवार चलाने मे जितनी देर करे, ऐन सवाब है। मैं उस वक्त तक खूँरेजी नहीं करना चाहता, जब तक तुम्हें इतना न समझा लूँ, जितना मुझ पर वाजिब है। मैं ख़ुदा और इन्सान, दोनों ही के नज़दीक इस जंग की जिम्मेदारी से पाक रहना चाहता हूँ, जहाँ भाई की तलवार भाई की गर्दन पर होगी । तुम्हें मालूम है, मैं यहाँ क्यों अाया? क्या मैंने इराक़ या शाम पर फ़ौजकशी की? मेरे अज़ीज़ दोस्त और अहलेबैत अगर फ़ौज कहे जा सकते हों, तो बेशक मैंने फौजकशी की। सुनो, और इन्साफ़ करो, अगर तुम्हें खुदा का खौफ़ और ईमान का लिहाज़ है कि मैं यहाँ तुम्हारे ही सरदारों के बुलाने से अाया। मैंने अहद कर लिया था कि मैं दुनिया के झगड़ों से अलग रहकर ख़ुदा की इबादत में अपनी ज़िन्दगी के बचे हुए दिन गुज़ारूँगा। मगर तुम्हारी ही फ़रियाद ने मुझे अपने गोशे से निकाला, रसूल की उम्मत की फ़रियाद सुनकर मैं कानों में उँगली न डाल सका। अगर इस हिमायत की सजा क़त्ल है, तो यह सिर हाजिर है; शौक़ से क़त्ल करो। मैं हज्जाज से पूछता हूँ---क्या तुमने मुझे खत नहीं लिखे थे?