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कर्बला

न हो। उन मलजनों को दिखा दूँगा कि मुझे अपनी लौंडी की आबरू अपने हरम से कम प्यारी नहीं है।

[ तलवार हाथ में लेकर बाहर जाते हैं, पर हंफ़ा उनके पैरों को पकड़ लेती है। ]

हंफ़ा---मेरे अाक़ा, मेरी जान आप पर फ़िदा हो। मैं अपना बदला दुनिया में नहीं, अक़बे में लेना चाहती हूँ, जहाँ की आग कहीं ज्यादा तेज़, जहाँ की सज़ाएँ यहाँ से कहीं ज्यादा दिल हिलानेवाली होंगी। मैं नहीं चाहती कि आपकी तलवार से क़त्ल होकर वह अज़ाब से छूट जाय।

हुसैन---हंफ़ा, यह सब उसके लिए है, जो दुनिया में अपना बदला न ले सके। अगर मेरे पास एक लाख आदमी होते, तो तेरी बेइज़्ज़ती का बदला लेने के लिए मैं उन्हें क़ुरबान कर देता, उन बहत्तर आदमियों की हकीकत ही क्या है। मेरे पैरों को छोड़ दे, ऐसा न हो कि मेरा ग़ुस्सा आग बनकर मुझको जलाकर खाक कर दे।

हंफ़ा---( दिल में ) काश इस वक़्त वे ज़ालिम यहाँ होते और देखते कि जिसे उन्होंने कुत्तों से नुचवाया था, उसकी अली के बेटे की निगाहों में कितनी इज़्ज़त है। नहीं, मेरे मौला, मैं दुश्मनों को इतनी अच्छी मौत नहीं देना चाहती। मैं उन्हें जहन्नुम की आग में जलाना चाहती.....

[ अली अकबर का प्रवेश। ]

अली अक॰---अब्बाजान, साद अपनी फ़ौज से निकलकर आया है, और आपसे मिलना चाहता है।

हुसैन---हाँ, मैंने इसी वक्त उसे बुलाया था। पहले उससे हंफ़ा को सतानेवालों के खून का मुआविज़ा लेना है।

[ हुसैन और अली अकबर बाहर आते हैं। ]

अली अक॰---या हज़रत, मैं भी आपके साथ रहूँगा।

अब्बास---मैं भी।

हुसैन---नहीं, मैंने उनसे तनहा मिलने का वादा किया है। तुम्हारे साथ रहने से मेरी बात में फ़र्क़ अायेगा।

अली अक॰---वह तो अपने साथ एक सौ जवानों से ज़्यादा लाया