यहाँ से चले चलो। किसी सामान की जरूरत नहीं। इसी तरह, इन्हीं पाँवों चलो। यहाँ से दूर, कसी दरख़्त के साए में बैठकर दिन काट दूँगी, पर इन जालिमों की खुशामद न करूँगी।
वहब---( नसीमा को गले लगाकर ) नसीमा, मेरी जान तुझ पर फ़िदा हो। जालिमों की सख़्ती मेरे हक़ में अकसीर हो गयी। अब उस ज़ुल्म से मुझे कोई शिकायत नहीं। हमारे जिस्म बारहा गले मिल चुके हैं, अाज हमारी रूहें गले मिली हैं, मगर इस वक्त नाके बन्द होंगे।
नसीमा---जालिमों के नौकर बहुत ईमानदार नहीं होते। मैं उसे ५० दीनार दूँगी, और वही हमें अपने घोड़े पर सवार कराके शहर के बाहर पहुँचा देगा।
वहब---सोच लो, बाग़ियों के साथ किसी क़िस्म की रू-रियायत नहीं हो सकती। उनकी एक ही सजा है, और वह है क़त्ल।
नसीमा---वहब, इन्सान के दिल की क़ैफ़ियत हमेशा एक-सी नहीं रहती। केचुए से डरनेवाला आदमी साँप की गर्दन पकड़ लेता है। ऐश के बन्दे गुदड़ियों में मस्त हो जाते हैं। मैंने समझा था, जो खतरा है, घोंसले से बाहर निकलने में; है अन्दर बैठे रहने में अाराम-ही-अाराम है। पर अब मालूम हुआ कि सैयाद के हाथ घोंसले के अन्दर भी पहुँच जाते हैं। हमारी नजात जमाने से भागने में नहीं, उसका मुक़ाबला करने में है। तुम्हारी सोहबत ने, मुल्क की हालत ने, क़ौम के रईसों और अमीरों की पस्ती ने, मुझ पर रोशन कर दिया कि यहाँ इतमीनान के मानी ईमान-फ़रोशी और आफ़ियत के मानी हककुशी हैं। ईमान और हक़ की हिफ़ाजत असली आफ़ियत और इतमीनान है। शायर ने खूब कहा है---
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी न मज़ा जीने में,
कुछ अगर है, तो यही खूने-जिगर पीने में।
वहब---मुअाफ़ करो नसीमा, मैंने तुम्हें पहचानने में ग़लती की। चलो, सफ़र का सामान करें।