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सेना मिली । हुसैन ने हुर को बुलाकर पूछा-"तुम मेरे पक्ष में हो, या विपक्ष में ?" हुर ने कहा- मैं आपसे लड़ने के लिए भेजा गया हूँ।" जब तीसरा पहर हुआ, ता हुसैन नमाज पढ़ने के लिए खड़े हुए, और उन्होंने हुर से पूछा-"तू क्या मेरे पीछे खड़ा हाकर नमाज पढ़ेगा?" हुर ने हुसेन के पाछे खड़े होकर नमाज पढ़ना स्वीकार किया। हुसैन ने अपने साथियों के साथ हुर की सेना को भी नमाज पढ़ाई । हुर ने यजीद की बैयत ली थी। पर वह सद्विचारशील पुरुष था। हजरत मोहम्मद के नवासे से लड़ने में उसे संकोच होता था। वह बड़े धर्म-संकट में पड़ा। वह सच्चे हृदय से चाहता था कि हुसैन मक्का लौट जायँ । प्रकट रूप से तो हुसैन को ओबैदुल्लाह के पास ले चलने की धमकी देता था; पर हृदय से उन्हें अपने हाथों कोई हानि नहीं पहुँचाना चाहता था। उसने खुले हुए शब्दों में हुसैन से कहा-"यदि मुझसे कोई ऐसा अनुचित कार्य हा गया, जिससे आपको काई कष्ट पहुँचा, तो मेरे लोक और परलोक, दोनो ही बिगड़ जायेंगे। और, यदि मैं आपको ओबैदुल्लाह के पास न ले जाऊँ, तो कूफा में नहीं घुस सकता। हाँ, संसार विस्तृत है, कयामत के दिन आपके नाना की कृपादृष्टि से वंचित होने की अपेक्षा यही कहीं अच्छा है कि किसी दूसरी ओर निकल जाऊँ। आप मुख्य मार्ग को छोड़कर किसी अज्ञात मागे से कहीं और चले जायँ । मैं कूता के गवर्नर ( अर्थात् 'आमिल' ) को लिख दूँगा कि हुसैन से मेरी भंट नहीं हुई, वह किसी दूसरी ओर चले गये। मैं आपको कसम दिलाता हूँ कि अपने ऊपर दया कीजिए, और कूका न जाइए।" पर हुसैन ने कहा-"तुम मुझे मौत से क्या डराते हो ? मैं तो शहीद होने के लिए चला ही हूँ।" उस समय यदि हुसैन हुर की सेना पर आक्रमण करते, तो संभव था, उसे परास्त कर देते, पर अपने इष्ट-मित्रों के अनुरोध करने पर भी उन्होंने यही कहा-"हम लड़ाई के मैदान में अग्रसर न होंगे, यह हमारी नीति के विरुद्ध है।" इससे भी यही बात सिद्ध होती है कि हुसैन को अब अपनी आत्म-रक्षा का कोई उपाय न सूझता था। उनमें साधुओं का-सा