हुसैन---बहन, क्या कहूँ, सितम टूट पड़ा। मुस्लिम तो शहीद हो गये। कूफ़ावालों ने दग़ा की।
जैनब---तो ऐसे दग़ाबाजों से मदद की क्या उम्मीद हो सकती है? मैं तुमसे मिन्नत करती हूँ कि यहीं से वापस चलो। कूफ़ावालों ने कभी वफा नहीं की।
[ मुस्लिम के बेटे अब्दुल्ला का प्रवेश। ]
अब्दुल्ला---फूफीजान, अब तो अगर तक़दीर भी रास्ते में खड़ी हो जाय, तो भी मेरे क़दम पीछे न हटेंगे। तुफ़् है मुझ पर, अगर अपने बाप का बदला न लूँ! हाय वह इन्सान, जिसने कभी किसी से बदी नहीं की, जो रहम और मुरौवत का पुतला था, जो दिल का इतना साफ़ था कि उसे किसी पर शुबहा न होता था, इतनी बेदरदी से क़त्ल किया जाय!
[ अब्बास का प्रवेश। ]
अब्बास---बेशक, अब कूफ़ावालों को उनकी दग़ा की सज़ा दिये बगैर लौट जाना ऐसी ज़िल्लत है, जिससे हमारी गर्दन हमेशा झुकी रहेगी। खुदा को जो कुछ मंजूर है, वह होगा। हम सब शहीद हो जायँ, रसूल के खानदान का निशान मिट जाय, पर यहाँ से लौटकर हम दुनिया को अपने ऊपर हँसने का मौक़ा न देंगे। मुझे यकीन है कि यह शरारत कूफ़ा के रईसों और सरदारों की है, जिन्हें ज़ियाद के वादों ने दीवाना बना रखा है। आप जिस वक्त कूफ़ा में कदम रखेंगे, रियाया अपने सरदारों से मुँह फेरकर आपके क़दमों पर झुकेगी। और, वह दिन दूर नहीं, जब यज़ीद का नापाक सिर उसके तन से जुदा होगा। आप ख़ुदा का नाम लेकर ख़ेमे उखड़वाइए। अब देर करने का मौका नहीं है। हक़ के लिए शहीद होना वह मौत है, जिसके लिए फ़रिश्तों की रूहें तड़पती हैं।
जैनब--–भैया, मैं तुझ पर सदक़े। घर वापस चलो।
हुसैन---आह! अब यहाँ से वापस होना मेरे अख्त़ियार की बात नहीं है। मुझे दूर से दुश्मन की फ़ौज का ग़ुबार नज़र आ रहा है। पुश्त की तरफ़ भी दुश्मन ने रास्ता रोक रखा है। दाहने-बायें कोसों तक बस्ती का निशान नहीं। हम अब कूफ़ा के सिवा कहीं नहीं जा सकते। कूफ़ा में हमें