मातम है कई दिन से मुसलमानों के घर में;
ख़न्दक़ में है लाश उनकी व सिर क़िले की दर में।
हुसैन---( सीने पर हाथ रखकर ) आह! मुस्लिम, वही हुआ, जिसका मुझे खौफ़ था। अब तक तुम्हें कफ़न भी नसीब नहीं हुआ। क्या तुम्हारी नेकनीयती का यही सिला था? अाह! तुम इतने दिनों तक मेरे साथ रहे, पर मैंने तुम्हारी क़द्र न जानी। मैंने तुम्हारे ऊपर जुल्म किया, मैंने जान-बूझकर तुम्हारी जान ली। मेरे अज़ीज़ और दोस्त सब-के-सब मुझे कूफ़ावालों से होशियार कर रहे थे, पर मैंने किसी की न सुनी, और तुम्हें हाथ से खोया। मैं उनके बेटों को और उनकी बीवी को कौन मुँह दिखाऊँगा।
[ मुस्लिम की लड़की फ़ातिमा आती है। ]
आओ बेटी, बैठो, मेरी गोद में चली आओ। कुछ खाया कि नहीं?
फ़ातिमा---बुआ ने शहद और रोटी तो दी थी। चचाजान, अब हम लोग कै दिन में अब्बा के पास पहुँचेंगे? पाँच-छह दिन तो हो गये!
हुसैन---( दिल में ) अाह! कलेजा मुँह को आता है। इस सवाल का क्या जवाब दूँ। कैसे कह दूँ कि अब तेरे अब्बा जन्नत में मिलेंगे। (प्रकट) बेटी, खुदा की जब मरज़ी होगी।
अली---अहा! तुम अब्बाजान की गोद में बैठ गयी। उतरिए चटपट।
फ़ातिमा---तुम मेरे अब्बाजान की गोद में बैठोगे, तो मैं भी उतार दूँगी।
हुसैन---बेटी, मैं ही तुम्हारा अब्बाजान हूँ। तुम बैठी रहो। इसे बकने दो।
फ़ातिमा---आप मेरी तरफ़ देखकर आँखों में आँसू क्यों भरे हुए हैं? आप मेरा इतना प्यार क्यों कर रहे हैं? आप यह क्यों कहते हैं कि मैं ही अब्बाजान हूँ? ऐसी बातें तो यतीमों से की जाती हैं।
हुसैन--( रोकर ) बेटी, तेरे अब्बा को ख़ुदा ने बुला लिया।
[ फ़ातिमा रोती हुई अपनी मा के पास जाती है। औरतें रोने लगती हैं। ]
जैनब---( बाहर आकर ) भैया, यह क्या ग़ज़ब हो गया?