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का। क्योंकि शान्ति-सेवन से जनता पर उनका प्रभाव बढ़ता जाता था। इसा लिए यजीद ने यह भी कहा था कि हुसैन का केवल उसके नाम पर बैयत लेना ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें उसके दरबार में भी आना चाहिए । यजीद को उनकी बैयत पर विश्वास न था । वह उन्हें किसी भाँति अपने दरबार में बुलाकर उनकी जीवन-लीला को समाप्त कर देना चाहता था। इसलिए यह धारणा कि हुसैन अपनी खिलाफत कायम करने के लिए कूफा गये, निर्मूल सिद्ध होती है । वह कूफा इस लिए गये कि अत्याचार-पीड़ित कुमा-निवासियों की सहायता करें। उन्हें प्राण-रक्षा के लिए कोई जगह दिखाई न देती थी। यदि वह खिलाफ़त के उद्देश्य से कूफा जाते, तो अपने कुटुम्ब के केवल ७२ प्राणियों के साथ न जाते, जिनमें बाल-वृद्ध सभी थे। कूमावालों पर कितना ही विश्वास होने पर भी वह अपने साथ अधिक मनुष्यों को लाने का प्रयत्न करते । इसके सिवा उन्हें यह बात पहले से ज्ञात थी कि कूफा के लोग अपने वचनों पर दृढ़ रहनेवाले नहीं हैं। उन्हें कई बार इसका प्रमाण भी मिल चुका था कि थोड़े-से प्रलोभन पर भी वे अपने वचनों से विमुख हो जाते हैं। हुसैन के इष्ट-मित्रों ने उनका ध्यान कूमावालों को इस दुर्बलता की ओर खींचा भी, पर हुसैन ने उनकी सलाह न मानी । वह शहादत का प्याला पीने के लिए, अपने को धर्म की वेदी पर बलि देने के लिए, विकल हो रहे थे। इससे हितैषियों के मना करने पर भी वह कूफा चले गये । दैव-संयोग से यह तिथि वही थी, जिस दिन कूफा में मुस्लिम शहीद हुए थे। १८ दिन की कठिन यात्रा के बाद वह 'नाहनेवा' के समीप, कर्बला के मैदान में पहुँचे, जो करात नदी के किनारे था । इस मैदान में न कोई बस्ती थी, न कोई वृक्ष । कूफा के गवर्नर की आज्ञा से वह इसी निर्जन और निर्जल स्थान में डेरे डालने को विवश किये गये।

शत्रुओं की सेना हुसैन के पीछे-पीछे मक्के से ही आ रही थी। और सेनाएँ भी चारों ओर फैला दी गयो थीं कि हुसैन किसी गुप्त मार्ग से कूफा न पहुँच जायें । कर्बला पहुँचने के एक दिन पहले उन्हें हुर की