बलाल---यह पिछवाड़े की तरफ़ बार-बार क्यों जा रही हो अम्मा?
तौआ---कुछ नहीं बेटा! यों ही एक ज़रूरत से चली गयी थी।
बलाल---हज़रत मुस्लिम पर न जाने क्या गुज़री।
[ खाना खाकर चारपाई पर लेटता है, तौआ बिस्तर लेकर मुस्लिम की चारपाई पर बिछा आती है। ]
बलाल---अम्मा, फिर तुम उधर गयीं, और कुछ लेकर गयीं। आखिर माजरा क्या है? कोई मेहमान तो नहीं आया है?
तौआ---बेटा, मेहमान अाता, तो क्या उसके लिए यहाँ जगह थी?
बलाल---मगर कोई-न-कोई बात है ज़रूर। क्या मुझसे भी छिपाने की ज़रूरत है?
तौआ---तू सो जा, तुझसे क्या।
बलाल---जब तक बतला न दोगी, तब तक मैं न सोऊँगा।
तौआ---किसी से कहेगा तो नहीं?
बलाल---तुम्हें मुझ पर भी एतबार नहीं?
तौआ---क़सम खा।
बलाल---खुदा की क़सम है, जो किसी से कहूँ।
तौआ---( बलाल के कान में ) हज़रत मुस्लिम हैं।
बलाल---अम्मा, ज़ियाद को ख़बर मिल गयी, तो हम तबाह हो जायेंगे।
तौआ---खबर कैसे हो जायगी। मैं तो कहूँगी नहीं। हाँ तेरे दिल की नहीं जानती। करती क्या, एक तो मुसाफ़िर, दूसरे हुसैन के भाई। घर में जगह न होती, तो दिल मे बैठा लेती।
बलाल---( दिल में ) अम्मा ने मुझे यह राज़ बता दिया, बड़ी ग़लती की। मैंने ज़िद करके पूछा, मुझसे ग़लती हुई। दिल पर क्योंकर क़ाबू रख सकता हूँ। एक वार से बादशाहत मिलती हो, तो ऐसा कौन हाथ है, जो न उठ जायगा। एक बात से दौलत मिलती हो, ज़िन्दगी के सारे हौसिले पूरे होते हों, तो वह कौन ज़ुबान है, जो चुप रह जायगी। ऐ दिल, गुमराह न हो, तूने सख़्त कसमें खायी है। लानत का तौक़ गले में न डाल। लेकिन होगा तो वही, जो मुक़द्दर में है। अगर मुस्लिम की तक़दीर में बचना लिखा