पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/९०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१८४ ) उसके लिये स्थान विशेष नियत कर देना क्या अल्पज्ञता है ? धर्म-कृत्यों के पुनीत दिनों को छोड़ दीजिए, उपासना के लिये कोई समय या पद्धति न नियत कीजिए, मसजिद, मंदिर, गिरिजाघरों को तुड़वा डालिए, देखिए देश और समाज का कितना उपकार होता है ? वास्तव में इन बातों में कुछ तत्त्व है, तभी यह प्रणाली सर्वसम्मत है । व्यासदेव कहते हैं- रूपं रूपविवर्जितस्य भवतो ध्यानेन यदकल्पितम् । स्तुत्या निर्वचनीयताखिलगुरो दूरीकंता यन्मया ॥ व्यापित्वञ्च निराकृतं भगवतो यत्तीर्थयात्रादिना । संतव्यं जगदीश तद्विकलता दोपत्रेयं मत्कृतम् ॥ हे परमात्मन् ! तुम अरूप हो, परंतु ध्यान द्वारा मैंने तुम्हारे रूप की कल्पना की, स्तुति द्वारा तुम्हारी अनिर्वच- नीयता दूर की, तीर्थयात्रा करके तुम्हारी व्यापकता निराकृत की, अतएव तुम इन तीनों विकलता (अस्वाभाविकता या असंपूर्णता ) दोपों को क्षमा करो। किंतु इतना शान होने पर भी उन्होंने ध्यान किया, स्तुति और तीर्थयात्रा की, तब तो क्षमा माँगने की आवश्यकता हुई। क्यों? इसलिये कि उपासना का मार्ग यही है। ध्यान-धारण भी सदोष, स्तुति-प्रार्थना भी सदोप, मूर्तिपूजा भी सदोप, फिर परमात्मा की उपासना कैसे हो? श्राप कहेंगे कि उपासना की श्राव- श्यकता ही क्या? ब्रह्म सद्भाव ही ठीक है, जो कि उत्तम और निदाप है। परंतु ब्रह्म नन्द्राव दम पाँच करोड़ मनुष्यों में भी किसी एक को होता है; फिर शेप लोग क्या करें ? वहीं ध्यान-धारणा, स्तुनि प्रार्थना श्रादि उनको करनी ही पटेगी, चाहे वह सदाप हो. परंतु एनी मिया द्वारा उनको परमपुरुष की प्रानि होगी। अध्यापक ग्यागणित की शिक्षा के लिये बढ़ा होकर पक. गंगा सींचना , और पबिंद