के विषय में परामर्श करते हैं, और यह सोचते हैं कि किस 'प्रकार उसको समुन्नत और सुशृंखल बनाया जाय । ऐसे अवसर पर जन-साधारण को और उनके पंथ के लोगों को उनके द्वारा जो लाभ पहुँचता है, वर्ष में फिर कभी वैसा अवसर हाथ नहीं पाता। इनमें कौन सी वात बुरी है कि जिसके लिये इन स्थानों के उत्सन्न करने की आवश्यकता समझी जाय, या इनको विष हलाहल कहा जाय ? संपूर्ण तीर्थों का उद्दश्य यही तो है ? किसी महान् उद्योग या धर्म-संघट्ट का , कार्य उस समय तक कदापि उत्तमता से नहीं हो सकता, जव तक कि उसके लिये कुछ स्थान प्रधान केंद्र की भाँति न नियत किए जायें। तीर्थ ऐसे ही स्थान तो हैं ! संसार में कौन जीवित जाति और सप्राण धर्म है, जो अपने उन्नायकों और पथ-प्रदर्शकों की जन्मभूमि अथवा लीलाक्षेत्र या तपस्थान को आदर-सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता? उनकी सजीवता और सप्राणता की जड़ उसी वसुंधरा की रज तो है। फिर उनमें उनकी प्रतिष्ठावुद्धि क्यों न होगी? जिस दिन यह प्रतिष्ठावुद्धि उनके हृदय से लुप्त होगी, उसी दिन उनकी सजीवता और सप्राणता लोकांतरित होगी। क्योंकि उनमें परस्पर ऐसा ही घना संबंध है। यदि इसमें देशाटन की उपकारिता मिला दी जाय, तो उसका महत्त्व और भी अधिक हो जाता है। फिर तीर्थी के रसातल पहुँचाने का क्या अर्थ ? तीर्थ के उद्देश्यों के समझने में जन-समुदाय का ब्रांत हो जाना संभव है। तीर्थों का कतिपय अविवेशियों के अकांडतांडव से कलुपित और कलंकित हो जाना भी असंभव नहीं। परंतु इन कारणां से तीयों को ही नष्ट कर देना समुचित नहीं; अन्यथा संस्कारों की समाज को श्रावश्यकता ही क्या ? शास्त्र यह समझते हैं कि-
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