में उन्होंने तत्वज्ञता ही का परिचय तो दिया है। किंतु निवेदन यह है कि उन्होंने उनको छोड़ा ही नहीं, उनका खंडन भी किया है, उनको निस्सार बतलाया है। अतएव में यही देखना चाहता हूँ कि वास्तव में उनमें कुछ सार या तत्व है या नहीं। तीर्थ के विषय में वे कहते हैं- तीरथ गये ते चहि मुये जूड़े पानी न्हाय । कह कवीर संतो सुनो राक्षस है पछिताय ॥ तीरथ भइ विख वेलरी रही जुगन जुग छाय । कविरन मूल निकादिया कौन हलाहल खाय ॥ -कवीर वीजक, पृ०६०१, ६०२ क्या वास्तव में तीर्थ जाने से राक्षस होना पड़ता है ? क्या वास्तव में वह विष वेलि है ? क्या उनका सेवन हलाहल खाना है? क्या कवीरपंथियों की भाँति उसकी जड़ ही काट देनी चाहिए ? किंतु हम देखते हैं कि 'कबीरन ने भी उसकी जड़ नहीं काटी। काशी का कवीरचौरा और मगहर कभी तीर्थ स्थान नहीं थे, किंतु कवीर-पंथियां ने ही आज इन्हें तीर्थ- स्थान बना दिया । क्यों? इसलिये कि एक में उनके गुरु का जन्मस्थान है और दूसरे में उनके तमोमय हृदय को ज्योति- मय बनानेवाले किसी महापुरुष का स्मृति चिह्न है। वहाँ आज भी उनके संप्रदाय के विज्ञानी और विचारवान् पुरुष समय समय पर पधारते रहते हैं, जिनसे उनके पंथ का जीवन है । वहाँ पहुँचने पर प्रायः उनके सत्संग का सौभाग्य प्राप्त होता है, जिससे हृदय का कितना तम विदूरित होता है। और पहुँचनेवालों को वे अवसर प्राप्त होते हैं, जो उन्हें घर बैठे किसी प्रकार न प्राप्त होते । वे वर्ष में एक बार उस पंथ के महात्माओं के मिलने के केंद्र हैं, जो एकत्र होकर न केवल विचार परिवर्तन करते हैं, वरन् अपने पंथ को निर्दोष वनाने
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