पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/८०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ७४ ) में नाम नहीं वसा है, अर्थात् परमात्मा की भक्ति करना या. धर्म करना जिनका उद्देश्य नहीं है, उनके पुस्तक इत्यादि पढ़ने से क्या होगा ? सिद्धांत यह कि पुस्तक पढ़ना, माला पहनना, सुमिरनी लेना इत्यादि धर्म के साधन हैं। धर्म के उद्देश्य से यदि ये सव क्रियाएँ की जायँ, तब तो ठीक है, उचित है। किंतु यदि इनको धर्म-साधन के स्थान पर अधर्म का साधन वना दिया जाय, इनके द्वारा लोगों को ठगा जाय, छल-प्रपंच किया जाय, पेट पाला जाय, तो इन कम्मों के करने से क्या होगा ? समस्त हिंदू शास्त्रों का यही सिद्धांत है, कवीर साहब भी ऐसे शब्दों में यही कहते हैं । शब्द' १८८ तथा १९६ ध्यानपूर्वक पढ़िए । किंतु वे कभी कभी ऐसा भी कह जाते हैं कि 'जोग जज्ञ जप संयमा तीरथ व्रत दाना' झूठे का वाना है; परंतु यह उनका गौण विचार है। यदि योग का खंडन उनको अभीष्ट होता, तो व्यापक भाव से इसे परमात्मा की प्राप्ति का साधन वे न बतलाते ( देखो शब्द २८-३२)। इसी प्रकार शील, क्षमा, उदारता, संतोप, धैर्य इत्यादि शीर्षक. दोहावली में आप संयम और दान आदि का गुणगान देखगे। इन सब विषयों में कवीर साहब की विचारपरंपरा सर्वांश में हिंदू-भावापन्न है। किंतु चौरासी अंग की साखी में उन्होंने "तीरथ व्रत का अंग" और "मृरत पूजा का अंग" शीर्षक देकर इन सिद्धांतों का खंडन किया है। उनको स्कुट रीति से हिंदू मुसल्मानों के कतिपय छोटे-मोटे धर्मसाधनों पर भी आक्रमण करते देखा जाता है। मैं इनमें से कतिपय विषयों को लेकर देखना चाहता हूँ कि वास्तव में इनमें कुछ तत्व है या नहीं। यह कहा जा सकता है कि कबीर साहब ने हिंदू मुसल्मानों के अनेक सिद्धांतों में से जिनमें अधिक तत्त्व देखा, उनको ग्रहण कर लिया, शेष को छोड़ दिया। इस विषय