साथ ही एक पवित्र ग्रंथ से यह ध्वनि होती है- ये यथा मां प्रपद्यते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वानुवर्त्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ स्वाधीन चिंते, तेरा मुख उज्वल हो, तुझसे ही प्रसूत तो ये सद्विचार हैं। इससे उच्च स्वाधीन चिंता क्या है, मैं यह नहीं जानता।
संत मत क्या है ? तत्वज्ञता । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-'मधुकर सरिस संत गुनग्राही,' 'संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि वारि विकार' । इसी की प्रतिध्वनि हम मौलाना रूम के इस शेर में सुनते हैं-"मन जे कुराँ मग्न रा वर- दाश्तम् । उस्तख़ाँ पेशे सगाँ अंदालतम्-मैंने कुरान से मगज़ ले लिया और हड्डी कुत्तों के सामने डाल दी। आँखवाले के लिये पेड़ का एक पत्ता भेदों से भरा है। जिसमें विवेक वुद्धि नहीं, उसके लिये संसार के समस्त धर्मग्रंथों में भी कुछ सार नहीं। धर्म के साधनों को आडंवर कहकर हम उनसे घृणा कर सकते हैं परंतु तत्वज्ञ की दृष्टि उसके तत्व को नहीं त्याग करती। विवेकशील कीचड़ में पड़े रत्न को भी ग्रहण करते हैं कीचड़ में लिप्त होने के कारण उसे अग्राह्य नहीं कहते। ___कवीर साहब ने एक शब्द में (देखो शब्द १९४) कहा है, कि जिनके जी में नाम नहीं वसा है, उनके पुस्तक पढ़ने, सुमिरनी लेने, माला पहनने, शंख बजाने, काशी में वसने, गंगाजल पीने, व्रत रखने, तिलक देने से क्या होगा? ऐसे शब्दों को पढ़कर लोग यह समझते हैं कि इनमें पुस्तक पढ़ने इत्यादि का खंडन है। किंतु वास्तव में ये शब्द खंडनात्मक नहीं हैं । इसी शब्द को देखिए । इसमें कहा है कि जिनके जी