. जहाँ चक्रवर्ती नृपाल की शस्त्रधारा कुंठित हो जाती है, वहाँ महापुरुष का एक मधुर वचन ही काम कर जाता है । मैं चिरसंचित कुसंस्कार दूर करने के लिये प्रोजस्वी और तीव्र भापण की आवश्यकता समझता हूँ, परंतुदुर्वचन और असंयत- भाषिता की नहीं क्योंकि ये आदर्श पुरुप के अस्त्र नहीं । विना क्रोध हुए दुर्वचन मुख से निकलते नहीं, असंयत भापण होता नहीं, किंतु क्रोध करना महापुरुषों का धर्म नहीं। इसके अति- रिक्त मिथ्याचारी एवं कदाचारी का कलुषित-श्रात्मा होना सिद्ध है, कलुषित-आत्मा दया का पात्र है, क्रोध का पात्र नहीं है। महात्मा सुकरात एक दिन अपनी शिप्य-मंडली के साथ राजमार्ग से होकर कहीं जा रहे थे कि उनके सामने से एक मदांध धनिक-पुत्र निकला, और अकड़ता हुआ विना कुछ शिष्टाचार प्रदर्शन किए चला गया। यह बात उनकी शिष्य- मंडली को बुरी लगी और उन्हें क्रोध आया। इस पर सुकरात ने कहा-इसमें क्रोध करने की क्या बात है ? यह बतलाओ, यदि सड़क पर तुमको कोई लँगड़ा मिलता और पाँच सीधे न रखता, तो क्या तुम लोग उसपर क्रोध करते ? लोगों ने कहा-नहीं, वह तो लँगड़ा होता। रोग से उसका पाँव ठीक नहीं, फिर वह पाँव सीधे कैसे रखता, वह तो दया का पात्र है। सुकरात ने कहा इसी प्रकार धनिक पुत्र भी दया का पात्र है। क्योंकि उसकी आत्मा मलिन है, और उसे मद जैसे कुरोग ने घेर रखा है। - उपदेश के समय चैतन्यदेव को दो मुसल्मानों ने एक घड़े के टुकड़े से मारा । उनका सिर फट गया और रुधिर-धारा से शरीर का समस्त-वस्त्र भींग गया। परंतु उन्हें क्रोध नहीं आया। वे प्यार के साथ आगे बढ़े, और उन दोनों को गले से लगाकर बोले-"तुम लोग तो सब से अधिक दया और
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