आधार पर या यों ही वह उनकी निंदा करने लगे, और उन्हें कुत्सित ठहरावे । आडवरों के बहाने धर्म-त्याग नहीं, श्राडं- घर में पड़े धर्म का उद्धार ही सदाशयता है। यदि कोई शस्त्र के सहारे आत्मघात कर ले, तो क्या उससे शस्त्र की उपयोगिता अगृहीत हो जानी चाहिए ? यदि नहीं, तो वेद- शास्त्र की निंदा का क्या अर्थ ? स्वाधीन चिंता का तो यह दुरुपयोग मात्र है। झूठे संस्कारों, आडंबर-मूलक आचार-व्यवहारों और प्रवंचना के तो शास्त्र स्वयं विरोधी हैं, किंतु वे समझते हैं कि घाव के लिये मरहम की भी आवश्यकता है। अतएव वे संयत हैं । वे जानते हैं कि वहीं कठोरता प्रभाव रखती है, जो सहानुभूति-मूलक हो। जहाँ हदय का ईया द्वेप ही कार्य करता है, वहाँ अमृत सी विप वन जाता है। अतएव वे गंभीर हैं। कदाचार और अपकर्म एक साधारण मनुष्य को भी निंदित वना देते हैं। फिर धर्मयाजकों और धर्मनेताओं को वे निंदनीय क्यों न वनावेंगे? उनके लिये कदाचारी और कुकम्मी होना और भी लज्जा की बात है क्योंकि जो प्रकाश फैलानेवाला है, यदि वही अँधेरे में ठोकरें खा खाकर गिरे, तो वह दूसरों के लिये उजाला क्या करेगा ? शास्त्र भी इसको समझते हैं, इसलिये मुक्तकंट से कहते हैं- कम्मेंद्रियाणि संयम्य यः प्रास्ते मनसा स्मरन् । इंद्रियार्थान् विमूढ़ात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ न शरीरमलत्यागानरो भवति निर्मलः। मानसे तु मले त्यक्ते भवत्यंतस्सुनिर्मलः॥ सर्वेषामेव शौचानामान्तःशौचं परं स्मृतम् । योऽन्तःशुचिर्हिस शुचिः नमृद्वारिशुचिः शुचिः॥
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