( ६४ ) समझ सकते थे कि सव मतों के सर्व साधारण और महान् एवं मान्य पुरुषों के प्राचार व्यवहार में अंतर हुआ करता है। उनके नेत्र के सामने ही , उसी समय में हिंदुओं में स्वामी रामानंद और मुसलमानों में शेख तकी जैसे महापुरुष मौजूद थे। फिर यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि उन्होंने उक्त धर्मग्रंथों के माननेवालों के आधार पर ही उन ग्रंथों के प्रतिकूल लिखा। मेरा विचार यह है कि उन्होंने एक नवीन धर्म-स्थापना की लालसा से ही ऐसा किया । . स्वाधीन चिंता यह भी कहा जा सकता है कि कवीर साहव स्वाधीन चिंता के पुरुष थे। उन्होंने समय का प्रवाह देखकर धर्म और देश के उपकार के लिये जो बातें उचित और उपयोगिनी समझी, उनको अपने विचारों पर आरूढ़ होकर निर्मीक चित्त से कहा। उन्होंने अपने विचारों के लिये कोई आधार नहीं हूँढा, किसी ग्रंथ का प्रमाण नहीं चाहा। उन्होंने सोचा कि जो बात सत्य है, वास्तविक है, उसकी लत्यता और वास्त- विकता ही उसका प्रधान आधार है। उसके लिये किसी ग्रंथ विशेष का सहारा क्या ? उनके जी में यह बात भी आई कि जिन वेदशास्त्रों और कुरान का आश्रय लेकर हिंदू मुसल्मान धर्मयाजक नाना कदाचार कर रहे हैं, उन्हीं को उन कदाचारों का विरोध करने के लिये अवलंब वनाना कदापि युक्ति संगत नहीं वरन् उनके विरुद्ध अांदोलन मचाना ही उपकारक होगा। निदान उन्होंने ऐसा ही किया। झूठे संस्कारों के वश लोग नाना क्रियाकांड में फंसे हुए थे, आउंवर-मूलक नाना आचार व्यवहार को धर्म समझ रहे थे, उनके द्वारा साँसत तो भोगते ही थे, चंचित भी हो रहे थे। उनसे यह बात नहीं
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