( ५५ ), और तुलसीदास का प्रभाव उत्तरी और मध्य हिंदुस्तान की अशिक्षित जातियों में स्थायी रूप से अधिक है । सर विलियम हंटर ने बहुत उचित रीति से कबीरदास को पंद्रहवीं शताब्दी का भारतीय लूथर कहा है।" -कवीर एंड दी कवीर पंथ, पृष्ट १ यह बात सत्य है । वैष्णव धर्म ही संस्कारमूलक है। अत- एव उस धर्म में दीक्षित होकर कबीर साहब में संस्कार- प्रवृत्ति का उदय होना आश्चर्यकर नहीं किंतु उनकी यह प्रवृत्ति और वातों की अपेक्षा हिंदुओं और मुसल्मानों को एक कर देने की ओर विशेष थी। क्योंकि उस समय की हिंदुओं और मुसल्मानों की वर्द्धमान अशांति उन्हें प्रिय नहीं हुई । श्रीमान् वेस्कट लिखते हैं- "कवीर की शिक्षा में हमको हिंदुओं और मुसल्मानों के बीच की सीमा तोड़ने का यत्न दृष्टिगत होता है।" -कवीर ऐंड दी कवीर पंथ, प्रोफेस, पंक्ति १६ और १९ "कवीर ने शेख से प्रार्थना की कि वे उनको यह वर दें कि वे हिंदुओं और मुसल्मानों के बीच के उन धार्मिक विरोधों को दूर कर सकें, जो उनको परस्पर अलग करते हैं।" -कवीर एंड दी कवीर पंथ, पृष्ठ ४२ निदान इस प्रवृत्ति के उदित होने पर कवीर साहब ने एक ऐसे धर्म की नींव डालनी चाही, जिसे दोनों धर्मों के लोग असंकुचित भाव से स्वीकार कर सकें। ऐसा करने के लिये उनको दो बातों की आवश्यकता दिखलाई पड़ी। एक तो इस वात की कि सब लोग उनको एक बहुत बड़ा अवतार या पैगंवर समझे, जिससे उनकी बातों का उन पर प्रभाव पड़े। दूसरे इस बात की कि वे उन धर्मपुस्तकों, धर्मनेताओं और
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