अनुसार ईश्वर की कृपादृष्टि के सव के समान अधिकारी हो जाने, और एक परमात्मा की संतान होने के कारण सब को भ्राता मान लेने पर, और भागवत के मुख से यह सुनकर कि "विप्राद्विपट् गुणयुतारविंदनाभ पादारविंदविमुखाच्च पचं वरिष्ठम्" वर्णाश्रम धर्म भी अप्रधान हो जाता है । अहिंसावाद के विषय में गीता का यह गंभीर नाद श्रुतिगत होता है-'अहिंसा परमो धर्मः' अतएव कीर साहब के सव सिद्धांत लगभग वे ही पाए गए, जो वैष्णव धर्म के हैं। निदान इस बात को प्रोफेसर वी. वी. राय भी स्वीकार करते हैं- ___"अगचे इवादत के बारे में हिंदुओं के और और संप्रदायों के साथ कवीरपंथियों का कुछ भी तअल्लुक नहीं है, ताहम हिंदू मजहब से उनके मजहब के निकलने का काफी लवूत मिलता है। उनकी और पौराणिक वैष्णवों की तालीमात नतीजन् अनकरीव एकसाँ हैं"। (संप्रदाय, पृ०६९,७०१) कवीर साहव की शिक्षा में दो वातें तो ऐसी हैं जिनका वैष्णव धर्म से कोई संबंध नहीं, वरन् उनकी यह शिक्षा उस धर्म के प्रतिकूल है। ये दोनों बातें अवतारवाद और मूर्तिपूजा की प्रतिकूलता हैं। अवतारवाद के अनुकूल ही उनकी शिक्षा में कुछ वचन मिलते भी हैं, और इसमें कोई संदेह नहीं कि गौण रूप से वे इसे स्वीकार करते हैं; परंतु मूर्तिपूजा के वे कट्टर विरोधी हैं। सेरा विचार यह है कि उनका यह संस्कार मुसल्मान-धर्म-मूलक है। वैदिक काल से उपनिषद् और दार्शनिक काल पर्यंत आर्य-धर्म में भी कहीं अवतारवाद और मूर्तिपूजा का पता नहीं चलता, पौराणिक काल में ही इन दोनों बातों की नींव पड़ी है। अतएव यदि.ऊँचे उठा जाय, तो कहा जा सकता है कि कबीर साहब ने प्राचीन
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