पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/५८

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( ५२ ) आनंदो द्विभुजः प्रोक्तो मूर्तश्चामूर्त एव च । अमूर्तस्याश्रयो मृर्त्त परमात्मा नराकृतिः ॥ कवीर वीजक, पृष्ठ ३३ महारामायण में श्रीरामचंद्र को सत्यलोकेश ही लिखा है- वाइनो गोचरातीतः सत्यलोकेश ईश्वरः । तस्य नामादिकं सर्व रामनाना प्रकाश्यते ॥ -कवीर बीजक, पृष्ट २४८ एक स्थान पर कबीर साहब ने भी कह दिया है कि उनका स्वामी 'साकेत' निवासी है। नीचे के पदों को देखिए- जाय जाहृत में खुद खाविंद जहँ वहीं मकान 'साकेत' साजी । कहै कबीर हाँ भिश्त दोजख थके वेद कीताव कादत काजी ॥ ~कबीर बीजक, पृ० २६७ इसलिये जिस प्रभु की कल्पना कीर साहब ने की है, वह वैष्णव विचार-परंपरा ही से प्रसूत है । वह वैनगर धर्म के पकेश्वरवाद का रूपांतर मात्र है। जब वैष्णव धर्म का यही विशेषत्व है कि वह एक मात्र भगवान की ही भक्ति करना है (देगा सिद्धांत २) और जय श्रीमन्नागवत को उन कंट से यह कहते सुनते हैं- वासुदेवं परित्यज्य योऽन्यदेवमुपासते। तृपिता जान्हवीतीरे कृपं ग्वनति कर्मतिः ॥ जब वा यही कहना कि किमी कम्र्म वा दान द्वारा' नहीं, वल भनि, के द्वारा जन्मपरिया काना (दंगी सिद्धांन३) और जय भनि यही महिना या गाजानी- रिमक्ति बिना फर्मान न्यायविकारा न का मिग विकादिनान नापि माना । नो मायाराद, मदनवाद, कम्मत, ना-दायाम, in. यात्रा श्रादि मा निगा । ननु frain.