पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/५२

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( ४६ ) मेरा विचार है कि कवीर साहव एकेश्वरवाद, साम्यवाद, भक्तिवाद, जन्मांतरबाद, अहिंसावाद और संसार की असा- रता के प्रतिपादक, एवं मायावाद, अवतारवाद, देववाद, हिंसावाद, मूर्तिपूजा, कर्मकांड, व्रत-उपवास, तीर्थयात्रा और वर्णाश्रम धर्म के विरोधी हैं। वे हिंदुओं और मुसल्मानों के धर्मग्रंथों और धर्मनेताओं के कट्टर प्रतिवादी हैं और प्रायः इनके धर्मयाजकों पर बुरी तौर से आक्रमण करते हैं। कहीं कहीं इस आक्रमण की मात्रा इतनी कलुपित और अश्लील है, जो समुचित नहीं कही जा सकती। ___हमने कबीर साहब को ऊपर 'एकेश्वरवाद' का प्रतिपादक कहा है, किंतु उनका एकेश्वरवाद कुछ भिन्न है। उनका प्रभु विलक्षण है। उनके मुहाविर के अनुसार एकेश्वर शब्द ठीक नहीं है। क्योंकि उनका प्रभु ईश्वर, ब्रह्म, पारब्रह्मा, निर्गुण, सगुण, सव के परे है। इस प्रभु को वे एक स्थान विशेष 'सत्यलोक' का निवासी मानते हैं और उसके लक्षण वे ही यतलाते हैं, जो वेपणव ग्रंथों में सगुण ब्रह्म केवितलाए गए हैं । वे कहते हैं कि वह सत्य गुरु के प्रसाद से केवल भक्ति द्वारा प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उसकी प्राप्ति का और कोई साधन वे नहीं बतलाते। (देखो, शब्द १६-२४) व उसका परिचय प्रायः राम शब्द द्वारा देते हैं। किंतु अपनी रचनाओं में हरि, नारायण, सारंगपानी, समरथ, कर्ता, फरतार, ब्राह्म, पारब्रम, निरच्छर, सत्यनाम, मुरारि इत्यादि शब्दों का प्रयोग भी उसके लिये करते हैं। अपना रक्खा या उसका 'साहब' नाम उन्हें बहुत प्यारा है। इस ग्रंथ के अधिकांश पद्य दसकं प्रमाण है। मान्यवाद, अहिंसावाद, जन्मान्तरवाद, भक्तिवाद और संसार को अनिन्यता का निरूपण उन्होंने सर्वत्र किया है।