(( ३८ ) इन वाक्यों से क्या सिद्ध होता है ? यही कि उनकी रच- नाओं में बहुत कुछ काट छाँट हुई है और अव तक हो रही है। जो वीजक ग्रंथ आजकल अधिकता से प्रचलित है, और जो कवीरपंथ का सव से प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है, वह भागूदास का प्रस्तुत किया हुआ है। इस भागूदास के विषय में रीवाँ-नरेश महाराज विश्वनाथसिंह लिखते हैं- ___भागूदास वीजक ले भागे हैं, सो वघेलवंश-विस्तार में कवीर ही जी कहि दिया है, भागूदास कि खवरि जनाई । लै चरणामृत साधु पियाई ॥ कोउ प्राव कह कलि जरिगयऊ। वीजक ग्रंथ चाराय ले गयऊ ॥ सतगुरु कह वह निगुरा पंथी। कहा भयो लै वाजक ग्रंथी ॥ चारी करि वह चार कहाई । काह भयो बड़ भक्त कहाई॥" कवीर बीजक पृष्ट, २६. जिस भागूदास की यह व्यवस्था है, उसके हाथ में पड़कर वीजक की क्या दशा हुई होगी, इसे ईश्वर ही जाने । आगे चलकर महाराज ने लिखा है कि इसका वास्तव में नाम तो भगवानदास था, पर इस प्रकार पुस्तक लेकर भागने से ही कवीर साहव ने इसका नाम भागूदास रखा । इन बातों से योजक की प्रामाणिकता में कितना संदेह होता है, इस बात का उल्लेख व्यर्थ है। प्रायः कबीरपंथियों से मुना जाता है कि कबीर साहब के ग्रंथों में जो वेद-शास्त्रा अथवा अवतारों के विरुद्ध बातें पाई जाती हैं, या असंगत भाव से खंडन और पातेप देखा जाता है, वास्तव में वह उनके किसी शिष्य की ही करतूत है। जो हो, परंतु भागूदास की कथा इस विचार को दृढ़ करती है। कीर साहब की परलोकयात्रा के पश्चात् ग्रंथों के
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/४४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।