और कवीरपंथियों की अपेक्षा कुछ निराली शिक्षा और विलक्षणता रखते हैं। इसलिये मूलपंथी कहलाते हैं। ११-नित्यानंद, १२-कमलानंद ये दोनों दक्षिण में जा वसे और उधर ही इन्होंने अपनी शिक्षा का प्रचार किया। इनके अतिरिक्त हंसकवीर, दालकवीर और मंगलकवीर नामक कवीरपंथियों की और कतिपय शाखाएँ हैं। १९०१ की जनसंख्या (मर्दुमशुमारी) की रिपोर्ट में कवीर- पंथियों की संख्या ८४३१७१ लिखी गई है। मैं समझता हूँ, कुछ न्यूनाधिक यही संख्या ठीक है । इनमें अधिकांश नीच जाति के हिंदू हैं। उच्च वंश के हिंदू नाम मात्र हैं। गुरु भी इस पंथ के अधिकांश नीच वर्ण के ही हैं । त्यागी और गृहस्थ इन में भी हैं। पर गृहस्थों की ही संख्या अधिक है। ये सब हिंदू धर्म के ही शासन में हैं, और उसी की रीति और पद्धति को वर्तते हैं ; केवल धार्मिक सिद्धांतों में कीरपंथ का अनुसरण करते हैं । यहाँ तक कि अनेक ऐसे हैं जो हिंदू देवी-देवताओं ये लोग बांधवगढ़ में रहने थे; किंतु वचन चूड़ामणि के वंशों के समान विशेष नियम नहीं होने से इनमें कई आचार्य हो गए। इस शाखा के लोग परस्पर विरोध के कारण बांधवगढ़ छोड़कर भिन्न भिन्न स्थानों में रहकर गुरुआई करते हैं। (३) जागू पंधी- इनकी गही विहार प्रांत के मुजफ्फरपुर जिले कमर डिवीजन हाजीपुर के निकट विद्पुर नामक ग्राम में है। इस पंथ में यही स्थान प्रधान माना जाता है। यह ओ. टी. रेलवे का म्टेशन है।" (४) सत्यनामी पंथ--इस नाम के तीन पंथ चलते हैं । १-कोटवा (अवध में), २-फर्रुखाबाद में ये लोग साधु के नाम से प्रसिद्ध हैं। 3-मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ में भंआरा नामक स्थान में; इसमें प्रायः चमार ही होते हैं।
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