( २५ ) ग्रंथावलि कवीर साहब ने स्वयं स्वीकार किया है कि "मसि कागद तो छुयो नहिं कलम गही नहिं हाथ । चारिहुँ जुग माहात्म्य तेहि कहिकै जनायो नाथ"। इसलिये यह स्पष्ट है कि कबीर साहव ने न तो कोई पुस्तक लिखी, न उन्होंने कोई धर्म-ग्रंथ प्रस्तुत किया। कवीर संप्रदाय के जितने प्रामाणिक ग्रंथ हैं, उनके विपय में कहा जाता है कि उन्हें कवीर साहव के पीछे उनके शिष्यों ने रचा। यह हो सकता है कि जिन शब्दों या भजनों में कवीर नाम आता है, वे कबीर साहव के रचे हुए हों, जो शिष्यों द्वारा पीछे ग्रंथ स्वरूप में संगृहीत हुए हों, परंतु यह बात सत्य शात होती है कि अधिकांश ग्रंथ कवार साहब के पीछे उनके शिष्यों द्वारा ही रचे गए हैं। प्रोफेसर वी०वी० राय, जो एक क्रिश्चियन विद्वान् हैं, अपने 'संप्रदाय नामक उर्दू ग्रंथ के पृष्ठ ६३ में लिखते हैं- __“जहाँ तक मालूम होता है, कबीर ने अपना तालीमी बातों को कलमचंद नहीं किया। उसके बाद उनके चेलों ने बहुत सी कितावें तसनीफ की। यह किताबें अकसर गुत्फगू की सूरत और हिदी नजम में लिखी गई। काशी के कवीरचौरे में इस संप्रदाय की मशहूर और पाक कितावों का मजमूंआ पाया जाता है, जिसे कवीरपंथी लोग 'खास ग्रंथ' कहते हैं। प्रसिद्ध वंगाली विद्वान, बावू अक्षयकुकार दत्त भी अपने "भारतवर्षीय उपासक-संप्रदाय" नामक बँगला ग्रंथ (प्रथम भाग, पृष्ठ ४९) में यही बात कहते हैं- "ए संप्रदायेर प्रामाणिक ग्रंथ समुदाय कवीरेर शिष्य- दिगेर आर ताहार उत्तर कालवी गुरुदिगेर रचित वलिया 'प्रसिद्ध आछे"
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