पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२९

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ज्यों जल छोड़ि बाहर भयो मीना, पुरुष जन्म है। तप का हीना। . अव कहु राम कवन गति मारी, तजिले वनारस मति भई थोरी। सकल जनम शिवपुरी गँवाया, मरति वार मगहर उठि धाया। बहुत चरख तप कीया काशी, भरन भया मगहर को वासी। काशी मगहर सम धीचारी, ओछी भगति कैसे उतरै पारी। कह गुरु गज शिव सम को जाने, मुश्रा कवीर रमत श्री रामै ॥ आदि ग्रंथ, पृष्ठ १७७ जहाँ इन शब्दों से कबीर साहब की विचित्र धार्मिक दृढ़ता सूचित होती है, वहा दूसरे शब्द के कतिपय आदिम पदों से उनका दुःखमय आंतरिक क्षोभ भी प्रकट होता है, और उनके संस्कार का भी पता चलता है । मनुष्य जव किसी गूढ़ कारण- वश अपनी अत्यंत प्रिय आंतरिक वासनाओं की पूर्ति में अस- मर्थ होता है, तो जैसे पहल वह हदयोग से विह्वल होकर पीछे दृढ़ता ग्रहण करता और कोई अवलंब हूँढकर चित्त को बोध देता है, दूसरे शब्द में क्वीरसाहव के हृदय का भाव ठीक वैसा ही व्यंजित हुआ है। इससे क्या सूचित होता है'? यही कि कबीर साहब को किसी और धार्मिक विरोधवश काशी छोड़नी पड़ी थी। भक्ति-सुधा-विंदु-स्वाद नामक ग्रंथ (पृष्ठ ८४०) के इस वाक्य को देखकर कि "श्री कबीर जी संवत् १५४९ में मगहर गए । वहीं से संवत् १५५२ की अंगहन मुदी एकादशी को परमधाम पहुँचे” यह विचार और पुष्ट हो जाता