( २२ ) छोड़ा गया परंतु वे उसके सामने शार्दूल होकर प्रगट हुए । मस्त हाथी भागा और उनका वाल भी चाँका न हुआ । कवीर साहव के एक शब्द में भी इसमें की एक घटना का वर्णन है। गंगा गुसाँइनि गहिर गंभीर, अँजिर बाँध कर खरे कवीर । मनन डिगैतन काहे को डेराइ,चरन कमल चित रह्योसमाइ। . गंग की लहर मेरी टूटी जंजीर, मृगछाला पर बैठे कवीर । कह कबीर कोउ संग न साथ, जल थल राखत हैं रघुनाथ । आदि ग्रंथ, पृष्ठ ६२६ . अंतिम काम कवीर साहब की परलोक-यात्रा के विषय में यह अति प्रसिद्ध बात है कि उस समय वे काशी छोड़कर मगहर चले गए थे। वस्ती के जिले में मगहर एक छोटा सा ग्राम है, जिसमें अव तक उनकी समाधि है। यहाँ वर्ष में एक बार साधारण मेला भी होता है। कवीर पंथ के अनुयायी कुछ मुसल्मान मिलते हैं तो यहीं मिलते हैं। कवीर साहब काशी छोड़कर अंत समय क्यों मगहर चले पाए, इसका उत्तर वे स्वयं अपने निम्नलिखित शब्दों में देते हैं- लोगा तुम ही मति के भोरा । ज्यों पानी पानी में मिलिगो, त्यों दुरि मिल्यो कवीरा। ज्यों मैथिल को सच्चा वास, त्योंहि मरण होय मगहर पास । मगहर मरै मरन नहिं पावै, अंत भरै तो राम लजावै। मगहर मरै सो गदहा होई, भल परतीत राम से खोई ॥ क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा। जो काशी तन तजे कवीरा, रामै कौन निहोरा ।। कवीर वीजक, शब्द १०३
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