( २४९ ) का माँगों कछु थिर न रहाई । देखत नैन चलो जाई । इक लख पूत सवा लख नाती। तेहि रावन घर दिया न वाती ॥ लंका सीकोट समुद्रसी खाई। तेहि रावन की खबरि न पाई ।। सोने के महल रूपै कै छाजा । छोड़ि चले नगरी के राजा ।। कोइ कर महल कोइ कर टाटी। उड़ि जाय हंस पड़ी रह माटी।। श्रावत संग न जात सँगाती । कहा भए दल वाँधे हाथी । कहै कबीर अंत की वारी। हाथ झारिज्यों चला जुआरी।।२१५|| अंतिम दृश्य सुगवा पिंजरवा छोरि भागा । इस पिंजरे में दस दरवाजा दस दरवाजे किवरवा लागा।। अँखियनसेती नीर वहन लाग्यो अव कसनाहिं तू बोलत अभागा। कहत कवीर सुनोभाई साधे उडिगो हंस दृटि गयो तागा।२१६। ___कौन ठगवा नगरिया लूटल हो। चंदन काठ कै वनत खटोलना तापर दुलहिन सूतल हो ।। उठो सखी मोर माँग सँवारो दुलहा मोसे रूसल हो। आए जमराज पलँग चढ़ि बैठे नैनन आँसू टूटल हो । चारि जने मिलि खाट उटाइन चहुँ दिसि धूधू ऊठल हो । कहत कवीर सुनो भाइ साधे जग से नाता छूटल हो ।।२१७॥ हम काँ श्रोढ़ावे चदरिया, चलती विरियाँ। प्रान राम जव निकसन लागे उलट गई दोउ नैन पुतरिया । भीतर से जव वाहर लाए छूट गई सव महल अटरिया ॥ चार जने मिलि खाट उठाइन रोवत ले चले डगर डगरिया। कहतकवीर सुनो भाइ साधोसंगचली वह सूखी लकरिया।२१८॥
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