पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२६७

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( २४५ ) तात जनति कह हमरोवाला । स्वारथ लागि कीन्ह प्रतिपाला ॥ कामिनि कहे मोर पिय आही । वाघिनि रूप गरासै चाही ॥ पुत्र कलत्र रहें लव लाए । जंवुक नाई रहि मुँह बाए । काकगीध दोउ मरन विचारें। स्थार स्वान दो पंथ निहारें । धरती कहै मोहिं मिलि जाई। पवन कहे में लेव उड़ाई ।। अग्नि कहै मैं ई तन जारों। स्वान कहे मैं जरत उवारों। जेहि घर को घर कहै गँवारे । सो वैरी है गले तुम्हारे ।। सो तन तुम आपन के जानी । विपय स्वरूप भूलि अज्ञानी ।। इतने तन के साँझिया जनमो भर दुख पाय । चेतन नाहीं वावरे मोर मोर गोहराय ।। २०३ ।। भूला लोग कहै घर मेरा। जा परवा में फूला डोले सो घर नाहीं तेरा ॥ हाथी घोड़ा वैल वाहना संग्रह कियो घनेरा॥ वस्ती में से दियो खदेरा जंगल कियो वसेरा ।। गाँठी बाँधी खरच न पठयो बहुरि कियो नहि फेरा।। वीवी बाहर हरम महल में वीच मियाँ का डेरा ॥ नौ मन सूत अरुसि नहिं सूझै जनम जनम अरुझेरा। कहत कवीर सुनो हो संतो यह पद करो निवेरा ॥२०४।। जो देखा सो दुखिया देखा तनु धरि सुखी न देखा। उदय अस्त की बात कहत हौं ताकर करहु विवेखा ।। वाटे वाटे सव कोइ दुखिया क्या गिरही वैरागी। शुक्राचार्या दुख ही के कारन गरभै माया त्यागी । जोगी बुखिया जंगम दुखिया तापस को दुख दूना । श्राशा तृष्णा सब घट व्यापै कोई महल नहिं सूना॥ साँच कहो तो सब जग खीझै झूठ को नहिं जाई। कह कवीर तेई भे दुखिया जिन यह राह चलाई ॥२०५।।