( २३७ ) एहि विचार ते वहि गयो गयो बुद्धि वल चित्त । दुइ मिलि एकै है रह्यो काहि बताऊँ हित्त ।।१८।।। संतो देखउ जग बौराना। साँच कहो तो मारन धायै झूठे जग पतियाना॥ नेमी देखे धरमी देखे प्रात करहि असनाना। प्रातम मारि पखानहिं पूजे उनमें कछू न ज्ञाना ।। बहुतक देखे पीर औलिया पढ़े किताव कुराना । कै मुरीद तदवीर वतायै उनमें उहै गिआना ।। आसन मारि डिंभ धरि बैठे मन में बहुत गुमाना । पीतर पाथर पूजन लागे तीरथ गरव भुलाना ।। माला पहिरे टोपी दीन्हें छाप तिलक अनुमाना। साखी सवदै गावत भूले प्रातम खवरि न जाना ।। कह हिंदू मोहिं राम पियारा तुरुक कहै रहिमाना। आपस में दोउ लरि लरि मूए मरम न काहू जाना। घर बर मंत्र जे देत फिरत हैं महिमा के अभिमाना। गुरुवा सहित शिष्य सब वूड़े अंतकाल पछताना ।। कहत कबीर सुनो हो संतो ई सव भरम भुलाना। कोतिक कहैं कहा नहिं मानै श्रापहि आप समाना ॥१८॥ संतो राह दोऊ हम डीठा । हिंदू तुरुक हटा नहि माने स्वाद सवन को मीठा ॥ . हिंदु वरत एकादसि साधै दूध सिंघाड़ा सेती। अन को त्यागै मन नहिं हटकै पारन करै सगोती ।। रोजा तुरुक नमाज गुजारै विसमिल वाँग पुकार। . उनको भिस्त कहाँ ते हाइहै साँझे मुरगा मार।। हिंदू दया मेहर को तुरुकन दोनों घट सो.त्यागी।। . वै हलाल वै झटका मार श्रागि दुनों घर' लागी।।
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२५९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।