पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२५८

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( २३६ ) मिथ्याचार __दर की बात कही दरवेसा । बादशाह है कौने भेसा ॥ कहाँ कृच कह करे मुकामा । कौन मुरति को करों सलामा । मैं मोहिं पूछों मुसलमाना | लाल जरद का ताना बाना ॥ काजी काज करो तुम कैसा । घर घर जवे करावो वैसा ॥ वकरी मुरगी किन कुरमाया । किसके हुकुम तुम छुरीचलाया। दरद न जानै पीर कहावै । बैता पढ़ि पढ़ि जग समुझाये ।। कह कवीर एक सय्यद कहा। आप सरीखा जग कबुलावै ॥ दिन भर रोजा धरत है। रात हतत हो गाय । यह तो खून वह वंदगी क्योंकर खुसी खोदाय ॥१७९॥ ऐसा जोग न देखा भाई । भूला फिरे लिए गफिलाई ॥ महादेव का पंथ चला। ऐसो बड़ो महंत कहा ॥ हाट वाट में ला तारी । कच्चे सिद्धन माया प्यारी ॥ कव दत्तै मावासी तोरी । कव शुकदेव तोपची जारी॥ कव नारद बंदूक चलाया । व्यास देव का वंव वजाया । करहि लड़ाई मति के मंदा । ई हैं अतिथि कि तरकस वंदा।। भए विरक्त लोभ मन ठाना । सोना पहिरि लजावें बाना ।। घोरा घोरी कीन्ह बटोरा । गाँव पाय जस चले करोरा ।। तिय सुंदरी न सोहाई सनकादिक के साथ । कबहुँक दाग लगावई कारी हाँडी हाथ ।।१८०।। सोग वधावा सम करि जाना । ताकी वात इंद्र नहिं जाना ॥ जटा तारि पहिरावै सेली। योग युक्ति के गरभ दुहेली ॥ आसन उड़ए कौन बड़ाई । जैसे काग चील्ह मँडराई । जैसी भिस्त तैसी है नारी । राज पाट सव गिनै उजारी॥ जैसे नरक तस चंदन माना । जस वाउर तस रहे सयाना ॥ 'लपसी लोंग गनै एक सारा । खाँडै परिहरि फॉकै छारा॥