( २१४ ) गृह-वैराग्य अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै । घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै॥ बन के गए कलपना उपजै, तव धों कहाँ समावै । घर में मुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।। सहज सुन्न में रहे समाना, सहज समाधि लगावै । उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै॥ सुरति निरत से मेला करि कै, अनहद नाद वजावै । घर में बस्तु वस्तु में घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।। कहैं कवीर सुनो हो अवधू ज्यों का त्यों ठहरावै ।।११।। दूर वे दूर वे दूर वे दूरमति _ दूर की बात तोहि बहुत भावै । अहै हज्जूर हाजीर साहब धनी दूसरा कौन कहु काहि गावै ।। छोड़ दे कल्पना दूर का धावना । राज तजि खाक मुख काहि लावै । पेड़ के गहे ते डार पल्लव मिले डार के गहे नहिं पेड़ पावै ।। डार औ पेड़ औ फूल फल प्रगट है. मिले जव गुरु इतनो लखावै । सँपति सुख साहबी छोड़ जोगी भए, सून्य की आस वनखंड जावै ।। काह कव्वीर वनखंड में क्या मिले दिलहि को खोज दीदार पावै ।।११२।। अनप्रापत वस्तु को कहा तजे, प्रापत को तजै सो त्यागी है। मु-असील तुरंग कहा फेरे, अफतर फेरे सेो वागी है ।।
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