( २१२ ) कहत कबीर सुनो नर लोई । अव तुम्हरी परतीत न होई ॥१०४॥ शब्द की चोट लगी तन में । घर नहिं चैन चैन नहिं वन में ।। ढूँढ़त फिरों पीव नहिं पावौं । औषध मूल खाय गुजरावौं ।। तुम से बैद न हम से रोगी। विन दिदार क्यों जिए वियोगी॥ एकै रँग रँगी सव नारी। ना जानों को पिय की प्यारी ।। कह कबीर कोइ गुरमुख पावै । विन नैनन दीदार दिखावै ।१०५ चली मैं खोज में पिय की । मिटी नहिं सौच यह जिय की ।। रहै नित पास ही मेरे । न पाऊँ यार को हरे ।। यिकल चहुँ ओर को धाऊँ। तबहुँ नहि कंत को पाऊँ। धरो केहि भाँति से धीरा । गयो गिर हाथ से हीरा ॥ की जब नैन की झाँई । लख्यो तब गगन में साँई ।। कवीरा शब्द कहि भासा । नयन में यार को बासा ।।१०६॥ अविनासी दुलहा कव मिलिहौ, भक्तन के रछपाल । जल उपजी जल ही सों नेहा, रटत पियास पियास । मैं ठाढ़ी बिरहिन मग जोऊँ, प्रियतम तुमरी आस ॥ छोड़े गेह नेह लगि तुम सों, भइ चरनन लवलीन । तालावेलि होत घट भीतर, जैसे जल विनु मीन ।। दिवस रैन भूख नहिं निद्रा, घर अँगना न सुहाय । सेजरिया बैरिन भइ हम को, जागत रैन विहाय ॥ हम तो तुमरी दासी सजना, तुम हमरे भरतार । दीन दयाल दया करि आओ, समरथ सिरजनहार । कै हम प्रान तजत हैं प्यारे, के अपना कर लेव । दास कवीर विरह अति वाढ़ेउ, हमकै दरसन देव ।।१०७॥ सुन सतगुरु की तान नींद नह पाती। विरहा में सूरत गई. पछाड़े खाती ॥ .
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