( १७. ) नारी की झाँई परत, अंधा होत भुजंग। .. . कविरा तिनकी कौन गति, नित नारी को संग ॥ . चौरासी अंग की साखी, कनक कामिनी का अंग। किंतु कबीर साहब ने अपना विवाह होना स्वयं स्वीकार किया है । यथा- नारी तो हम भी करी, जाना नाहिं विचार । जव जाना तब परिहरी, नारी बड़ा विकार ॥ चौरासी अंग की साखी, कनक-कामिनी का अंग। भ्रमण करते हुए. एक दिन कवीर साहव भगवती भागीरथीहलस्थित. एक वनखंडी वैरागी के स्थानपर पहुँचे। वहाँ एकविंशति वर्षीया युवती ने आपका स्वागत किया । वह निर्जन स्थान था; परंतु कुछ काल ही में वहाँ कुछ साधु और आए । युवती ने साधुओं को अतिथि समझा, उनका शिष्टाचार करना चाहा, अतएव वह एक पात्र में दूध लाई । साधुओं ने उस दूध को सात पनवाड़ों में बाँटा । पाँच उन लोगों ने स्वयं लिया, एक कवीर साहब को और एक युवती को दिया । कबीर साहब ने अपना भाग लेकर पृथ्वी पर रख दिया, इसलिये युवती ने कुछ संकोच के साथ पूछा- आपने अपना दूध धरती पर क्यों रख दिया? आप भी और साधुओं की भाँति उसे कृपा करके अंगीकार कीजिए । कवीर साहब ने कहा- देखो, गंगा पार से एक साधु और पा रहा है। मैंने उसी के लिये इस दूध को रख छोड़ा है। युवती कवीर साहव की यह सजनता देखकर मुग्ध हो गई और उस समय उनके साथ उनके घर चली आई। पश्चात् इसी के साथ कवीर साहब का विवाह हुआ। इसका नाम लोई था। यह वनखंडी वैरागी की प्रतिपालित कन्या.थी। इसे वैरागी ने
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