पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२२९

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अन्न न भावे नींद न आवे गृह वन धरे न धीर रे। ज्यों कामी को कामिनि प्यारी ज्यों प्यासे को नीर रे॥ है कोई ऐसा पर-उपकारी पिय से कह सुनाय रे । अब तो वेहाल कवीर भए हैं विन देंखे जिउ जाय रे ॥१०॥ सतगुरु हो महाराज, मोपै साई रँग डारा । शब्द की चोट लगी मेरे मन में वेध गया तन सारी ॥ औषध मूल कछू नहिं लागे क्या करे वैद विचारा। सुर नर सुनि जन पीर औलिया कोइ न पावै पारा। साहव कविर सर्व रँग रँगिया सव रंग से रँग न्यारा ॥१०॥ कैसे दिन कटिहै जतन वताए जइयो। . एहि पार गंगा वोही पार जमुना विचवाँ मँडइया हमका छवाए जइयो । अँचरा फारि के कागद वनाइन अपनी सुरतिया हियरे लिखाए जइयो। कहत कबीर सुनो भाई साधो वहियाँ पकरि के रहिया वताए जइयो ॥१०२॥ प्रीत लगी तुअ नाम की पल विसरै नाहीं। नजर करो अब मेहर की मोहिं मिलो गुसाई॥ विरह सतावे मोहिं को जिव तड़पै मेरा। तुम देखन को चाव है प्रभु मिलो सवेरा ।। नैन तरसे दरस को पल पलक न लागे। दद चंद् दीदार का निस वासर जागें ।। जो अब प्रीतम मिले करूँ निमिख न न्यारा। अव कवीर गुरु पाइयां मिला प्रान पियारा ॥१०॥ हूँ वारी मुख फेरि पियारे. करवट दे मोहि काहे को मारे ।। करवत भला न करवट तेरी । लाग गरे सुन विनती मेरी॥ हम तुम वीच भया नहिं कोई । तुर्माह सो कंत नारि हम सोई॥